वर्धमान रूपायन | Vardhman Rupayan

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Vardhman Rupayan by कुन्था जैन - Kuntha Jaina

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ सामूहिक नृत्य-गीत | सुरमुर हुए कत्पवृक्ष सुर्य-चन्द्र चमके गुध्र नील नभम नव ताराग्रह्‌ दमे -- पवत के रजत-शिखर जाये धरा व्ररन, डोल उठ सागर गतिशील हुए झरने । चंचल समीर-संग आगभा इन्द्रघनुपों को सतरंगी सरसी । पहना हरीतिमा ने फलों का परिधान, चिड़ियों का कलरव पवेरओं का मोदगान गूंज उठा सुप्टिनाद नव साहस भरने । पादवं-स्वर : पुरुपार्य सजग साकार हुआ जड़ में रस का संचार हुआ पर चकित खड़ा मानव मतिश्रम क्या रुप धरेगा जीवन-क्रम ! की [ऋषभनाथ का प्रवेण । साथ में भरत (पत्र )' हि बाहुबली ं ॥ पु ) मारीचि (प्रपीत्र ), ब्राह्मी (पुवी ) / सुर (पतौ) पाए्व-स्वर : एते में प्रकटे ऋपभनाध वे आदि पुरुप, 'कुतयुग' के मनु: मानव का भय, मणय टये आये कर में ले प्रना-घनु ! ऋषम : लो ! विषय व्यवस्था सार-शूत है कर्मठ मानव ब्रह्म च्य । जीवन यापन के छद्‌ मान जन बाग सहयोगी उत्पादन |




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