भक्तियोग | Bhaktiyog

Bhaktiyog by स्वामी विवेकानन्द - Swami Vivekanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्ति की व्याख्या उसका सश्चार सदैव ऐसे ही निश्न श्रेणी के भक्तों द्वारा हुआ है । बहुधा ऐसा भी होता है कि किसी विशेष इष्ट-निष्टा के कारण ही मनुष्य दूसरे धमी पर दोषारोपण करने लगता है, य्यपि यह सच है कि सत्य प्रेम की उत्पत्ति इस प्रकार की निष्ठा द्वारा ही होती है | '्रत्येक घ्मे तथा देश में संकीण बुद्धि वाटे अपने आदर्श-सत्य वे प्रति प्रेम प्रकट करने का एक ही उपाय समझते हैं और वह है- अन्य आदी को घृणा की दृष्टि से देखना । यहीं इस बात की मीमांसा है कि वह मनुष्य जो अपने इंधरादश तथा धर्मादर्श में इतना अनुरक्त है, किसी दूसरे आदर को देखकर ऐसा घोर द्वेषी क्यों बन जाता है । इस प्रकार का प्रेम कुछ ऐसा ही है जैसा कि एक कुत्ते का, जो अपने स्वामी की सम्पत्ति की रक्षा दूसरों से करता है, परन्तु पििर हम यह कहेंगे कि एक कुत्ते की बुद्धि इस प्रकार के मनुष्यों से कहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वह कुत्ता कम से कम अपने स्वामी को, चह चाहे किसी वेष में क्यों न हो, शत्रु समझकर कभी भ्रमित तो नहीं होता। फिर दूसरी बात यह है कि परधर्म-देपी की विवेचन- डाकि बिलकुल नष्ट हो जाती है और व्यक्तित्व को वह इतनी प्रधा- नता देता है कि उसे यद्व विचार दी नदौ रह जाता करि दूसरा मनुष्य क्या कह रह। है, ठीक या गृरुत; उसे तो सदा इसी बात का व्यान -रहतादहै किं अमुक बात कद कौन रहा है । बढुघा ऐसा देखा जाता डै कि यदि एक मनुष्य जो अपने सम्प्रदाय तथा निजके मत वालो के प्रति दया, प्रेमयुक्त तथा से हृदय वालाहै, तो वही मनुष्य र




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