आधुनिक साहित्य | Aadhunik Sahitya

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Aadhunik Sahitya by नन्ददुलारे वाजपेयी - Nand Dulare Bajpai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ , उपन्यासो में. नारो और पुरुष-सूरष्टि के बीच संतुलन हं । प्र मचन्दजी के उपन्यास समाज की वास्तविक गति-विधि से इतना सीधा संबंध रखते हूं कि उनकी कला अत्यधिक यथार्थ भूमि पर काम करती प्रतीत होती हू । परन्तु यथाथ॑ के इस आवरण मे काभ करती हई प्र मचस्द की कछां वेस्तुतः आदर्श-प्रधान 10 १५ हं । वे सुधारवादी उक ओर निर्माता ह्‌ । सामाजिक गति-विधि का इतना समीपी चित्र प्रस्तुत करने कलर लेख क़ कलाकार कौ अपक्षा सामाजिक इतिहास- लेखक-स जान पड़ता हे--परस्तु पहलों ही दृष्टि में । जब हम उनकी रचनाओं के साथ आगे बढ़ते है, और उसके स्वरूप और श्रभाव के संपर्क में आते है; तब प्रेसचन्दजी की आदश-प्रधान कला प्रत्यक्ष हो जाती है। अधिक-से-अधिक हमे यह शिकायत होती हूं कि प्रेमचन्द के उपन्यास सामाजिक हं, सांस्कृतिक नहीं । उनमें पात्रों का जीवन अत्यधिक प्रत्यक्ष और ऊपरी स्तर का है । और ' जो कलाकार समाज की इतनी ऊपरी भूमिका पर निर्माम-कायं करता, उसका आददांवाद भी कदाचित्‌ उतना ही छिछलां और हल्का होगा + पर बात यह नहीं हे । वास्तव में प्रेमचन्द के प्रमुख पात्र और चरित्र उसी घातु के गढ़ इए है, जिसके वे स्वयं थे । उनसें जीवन की परिपूर्ण निष्ठा हें । इस दुष्टि से प्रेमसचन्द जी का कला-निर्माण दो विरोधी तत्वों कासंमिलन है। उनके उपस्थासों का वस्तु-चयन ओर घटना-विकास सत्यधिक प्रत्यक्ष भूमि पर किया गया है, परन्तु उनके चरित्र प्रमुख रूप से आदशंवादी हु । कदाचित्‌ इसलिए प्रेभचन्द के. उपन्यासो मं लोग आदश्चंवाद जौर यथाथंवाद दोनों ढुढ़ते और दोनों पाते हूं; पर वास्तव में प्रसचद का साहित्यिक निर्माण आदरदों-प्रधान है; इसमें संदेह नहीं । उनकी कला में पौरुष की प्रमुखता है और पृर्ष का ऊबड़-खाबडपन हैं । रेखाएं काफी मोटी और बेडौल है । पर उनका प्रभाव असंदिग्ध है । प्रेस- चंद कौ कलास्‌ उपर्युक्त दिरोधाभास्त (फोटोग्राफी कौ सी वस्तुमुखी कला में आदंशों की स्थापना) के कारण उसका वास्तविक सूत्यांकन करने सें कठिनाई होती हैं। कहा जाता हं कि प्रेमचन्दजी का साहित्य ऊपर कहै विरोधी उपकरणों का पूरी तरह सामंजस्य नहीं कर सका है। उनकी रचनाओं सं; दत्स्थ्घन्द की-सी परिष्कति और गहराई और रवीसनाथ के उपन्यासों का-सा सौष्ठव नहीं आ सका । टाल्स्टाय या गोकी का-सा परिपुष्ट निर्माण और संतुउन थी उनमें नहीं हूं । परन्तु इस प्रकार का आरोप करनेवाले यह नहीं देखते कि प्रेमचन्द हिन्दी के सामइजिक और साहित्यिक क्षेत्र की अत्यन्त*आरंभिक विकासावस्था मे काम कर रहे थे। दुलना में इन सहान




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