जयसंधि | Jayasandhi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
226
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जय-संधि १५९
“नहीं बहन, नहीं । यहां उनकी खरर नहीं हैं । कह देना कि ऐसा न
सोचें आर बहन, हम लोग कुछ नहीं कर सकतीं । अपने विवाह तक पर
तौ हमारा वश नहीं है। आगे हम क्या कर सकती हैं? युद्ध होगा तो हो + _
जाओ बहन, कह देना कि किसी को किसी पर दया करने की जरूरत
नहीं है |”
बसन्त सब तरह की कोशिश करके हार गईं । और लौटकर सब हाल
पति को कह सुनाया ।
सुनकर यशोविजय कुछ विचारते रह गए । फिर कहा, “बसन्त,
यश पागल हो गई है । मैं उससे मिलने जाऊंगा ।”
बसन्त--पर उसने मना किया हैं । और तुम्हारा लॉटकर आना
कठिन है |
यशोविजय हंस पढ़े । बोले, “कठिन मैं नहीं जानता, बसन्त ! यह
जानता हूँ कि समय से पहले मेरा मरना असम्भव है और उधर यश एक-
दस बौरा गई है । तुम्हीं कहो, में रुक सकता हूं. ?””
और यशीविजय नहीं रुके ।
कै कै ¢
यशर्तिलका बहुत घबरा गहं । जब परिचारिका के हाथ उसने पत्र
पाया कि यशोविजयसे ्माश्ी रात के समय व्ह स्वयं बाहर ऊंजमें
अआकर न मिली तो बह श्यन-कन्त मं जार्यगे ।
यह सूचना पाकर बह किसी तरह कुछ भी अपने लिए निश्चय न कर
सकी । जाने का समय हुआ कि कुंज सें भी न जा सकी । वह जाग रही
थी और जाना चाहती थी पर पांव जैसे बंध गए हों । वह उस समय
पलंग पर उठकर बेदी थी, पर उतर कर चलना उसके लिए संभव नहीं
हुआ । ऐसे बैठी रहकर अन्त में सब बत्तियां छुमाकर वह फिर लेट गईं ।
यशोविजय ठोक समय पर कक्ष में आ उपस्थित हुए । बत्ती बढ़ाकर
डेग्वा कि यश पतंग पर आंखें मू'दे लेटी है । सीधे सिरहाने बेठकर यशो-
विजय ने हाथ पकड़कर कहा “यश, उठो, तुम सो नहीं रही हो ।”'
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