जयसंधि | Jayasandhi

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Jayasandhi by जैनेन्द्रकुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जय-संधि १५९ “नहीं बहन, नहीं । यहां उनकी खरर नहीं हैं । कह देना कि ऐसा न सोचें आर बहन, हम लोग कुछ नहीं कर सकतीं । अपने विवाह तक पर तौ हमारा वश नहीं है। आगे हम क्या कर सकती हैं? युद्ध होगा तो हो + _ जाओ बहन, कह देना कि किसी को किसी पर दया करने की जरूरत नहीं है |” बसन्त सब तरह की कोशिश करके हार गईं । और लौटकर सब हाल पति को कह सुनाया । सुनकर यशोविजय कुछ विचारते रह गए । फिर कहा, “बसन्त, यश पागल हो गई है । मैं उससे मिलने जाऊंगा ।” बसन्त--पर उसने मना किया हैं । और तुम्हारा लॉटकर आना कठिन है | यशोविजय हंस पढ़े । बोले, “कठिन मैं नहीं जानता, बसन्त ! यह जानता हूँ कि समय से पहले मेरा मरना असम्भव है और उधर यश एक- दस बौरा गई है । तुम्हीं कहो, में रुक सकता हूं. ?”” और यशीविजय नहीं रुके । कै कै ¢ यशर्तिलका बहुत घबरा गहं । जब परिचारिका के हाथ उसने पत्र पाया कि यशोविजयसे ्माश्ी रात के समय व्ह स्वयं बाहर ऊंजमें अआकर न मिली तो बह श्यन-कन्त मं जार्यगे । यह सूचना पाकर बह किसी तरह कुछ भी अपने लिए निश्चय न कर सकी । जाने का समय हुआ कि कुंज सें भी न जा सकी । वह जाग रही थी और जाना चाहती थी पर पांव जैसे बंध गए हों । वह उस समय पलंग पर उठकर बेदी थी, पर उतर कर चलना उसके लिए संभव नहीं हुआ । ऐसे बैठी रहकर अन्त में सब बत्तियां छुमाकर वह फिर लेट गईं । यशोविजय ठोक समय पर कक्ष में आ उपस्थित हुए । बत्ती बढ़ाकर डेग्वा कि यश पतंग पर आंखें मू'दे लेटी है । सीधे सिरहाने बेठकर यशो- विजय ने हाथ पकड़कर कहा “यश, उठो, तुम सो नहीं रही हो ।”'




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