उत्सर्ग | Utsarg

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Utsarg by गौड़ - Gaud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“अच्छा तू रहने दें, तुझ से कुछ न होगा, में ही चला जाऊंगा ।” दूसरे दिन तेरे दादा पिता जी से घर आकर वोले_ गोपाल यह विवाह नहीं होगा । पिताजी विगढ़ उठे -- रम्म्‌ तुम्हारी ही आन है यह वात नहीं है हमारी भी इज्जत है । “अरे तो टेढ़ा क्यों हो रहा है-तेरी बेटी का विवाह में स्वयं करू गा, वह जैसे तेरी बेटी वैसे मेरी बेटी-दयाल को बुला उसके हाथ पीले करदे ।” उसके पर्चात कया हुश्रा, वया नहीं, जानती नहीं भाई परन्तु तेरे वावू जी से विवाह हो गया, तुम्हारे कुल की छत्र छाया होने पर किसी का एक भी शव्द नहीं सुनना पड़ा । श्रपने पूर्वजों की वात सुन कर एक प्रकार के गवं का श्रनुभव कान्त को हुश्रा, पिता के मुख से एक दिन उसने सुना था कि उसकी परदादी ने, उसके किसी एक दादा का वीस वपं तक मुह नहींदेखा उसी घटना का उल्लेख कर उसने पूछा--“भ्रच्छा मां ! परदादी ने किसी दादा का वीस वषं तक मुख नहीं देखा, यह क्या ठीक है ।” “ठीक ही तो हैं बेठा ! तेरे दादा थे घधनपाल, तेरे दादा ने केवल इतना कह दिया था--मां तू खुद भी पिली रहती है दूसरों को भी काम में जोते रखती है ।” बस फिर क्याथा वोली--“क(म करते करते ही इस उमर को बहु ची हूँ, श्राज तू मुझे सिखाने चला है यदि श्रादमी है तो शव कभी श्रपना मुह मुझे मत दिखाइयो ।” [ १५




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