काकली | Kakali

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Kakali by कौशलेन्द्र राठौर - Kaushalendra Rathaur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मरी दशा मरी दशा जागता नहीं हूं तुम्हें देखता हूं चार! ओर, साता नर्द ह तुम्हारा ध्यान घरता हूं में । बोलता नहीं हूं किन्तु तुमको पुकारता हूं, ड होता हूं न मान आप में विसरता हू में । _ 'काशलेन्द्” अब न अधिक मटकाथओओ हमें. करता जो हूं तुम्हारे हेतु करता हूं में । जी नहीं रहा हूं यह जीवन बिता रहा हूं, सास चलती नदीं हं अहं मरता हं । ( २ ) शाति हूर स्वस्न, कल्पनार्मे भी न मोद रहा, ` सिचं मृद्‌ आनन प दुख की लकीर हे। जीवन के कण से निकलते हैं अश्र- बंद; दे हुई चीण, घये भी इआा अधीर है | कोशलेन्द्रं तन होगया ह तरव हीन:बस,-- रद गया शप अधिलापा का सयीर हैं । डूबा ग्राख-कज उर-करुणा-सरोवर मे, मानस की पीर हुई द्रौपदी का चीर है । ष ^. न ५ 1 र, ^




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