यजुर्वेदभाषाभाष्य भाग - 1 | Yajurved Bhasha Bhashya Bhag - 1
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26 MB
कुल पष्ठ :
443
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथमोऽप्यायः | १५
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कुक्कुटोऽमि मघुंजिहुश्दषमजजमाव॑द त्वय वय९ सचातर संघातं
जेऽम वषदधममि प्रति त्वा चष्द्धं येत्तु परापूत९ रघ्नः परापूता
अर।तयोऽपंहत५ रच्छ बायुग विविनच्छ देवो व॑ः सखिता दिरंख्यपाणिः
प्रतिग्+णात्वच्ंछिद्रेण पाणिना ॥ १६ ॥
पदार्य:--जिस कारण यह यन्त ( सघुजिह्नः ) जिस में मघुर गुणयुक्त वाणी हो । तथा
( झुक्कुटः ) चोर वा शत्रुओं का चितताश करने वाला ( असि ) है । भर ( इषम् ) अन्न श्रादि पदार्थं
वा ( उज॑सू ) विद्या आदि बल श्रौर उत्तम से उत्तम रस को देता है। इसी से उसका श्रनुष्टान सदा
करना चाहिये । हे विद्वान् लोगो ! तुम उक्त गुणौ को देनेवाला जो तीन प्रकार का यज्ञ है उस का
झनुष्टान श्र हम लोगों के प्रति उस के युर्णो का ( आआवद ) उपदेश करो जिस से ( वय॑ ) हम लोग
( त्वया ) तुम्हारे साथ ( संघातं संघातस्र ) जिन में उत्तम रीति से शत्रु्रों का पराज्य होता द्ै
ग्रथौत् श्रि भारी संम्रामो को वारंवार (श्रा जेष्म ) सव प्रकार से जीतें क्योंकि श्राप युद्धचिद्या के
जानने वाले ( भ्रति } है इसी से सव मनुष्य ( वर्षषृद्धम् ) शश्च श्रोर श्रखव्िदया की वपौ को वदानेचाले
(त्वा) श्राप तथा ( वपेनरद्धम् ) वृष्टि के बढ़ने वाले उक्त यक्त को ( प्रतिवेततु ) जानें । इस प्रकार
संग्राम करके सव मनुरप्यो को ( परापूतम् ) पवित्रता धादि गुर्णो को दोढनेवाले ( रक्तः ) दुष्ट मनुष्य
तथा ( परापूतीः ) शुद्धि को छदने वलि ्रौर ( श्रातयः ) दान श्रादि धमं से रहित शतुनन तथा
( रक्तः ) डाऊु्ओं का जैसे ( अपहृतमु ) नाश हो सके वैसा प्रयत्न सदा करना चाहिये जैसे यह
( हिरण्यपाणिः ) जिस का ज्योति हाथ है ऐसा जो ( वायु: ) पवन है, वह ( श्रच्छिद्रेण ) एकरस
( पाणिना ) श्रपने गमनागमन व्यवहार से यज्ञ श्रौर संसार में अधि और सूर्य से श्रति सूचम हुए
पदार्थों को ( श्रतिगम्णातु ) ग्रहण करता है ( हिरण्यपाणिः ) वा जेसे किरण हैं हाथ जिस के वह
( हिरण्यपाणि: ) किरणभ्यवार से ( सविता ) चष्ट वा प्रकाश के दवारा दिव्य गुणौ के उत्पन्न करने में
हेत ( देवः ) प्रकाशमय सूय्य॑लोक ( बः ) उन पदार्थो को ( विविनष्, ) प्रलग २ श्रयोत् प्रमारूप
करता है वैसे ही परमेश्वर वा विद्धान् पुरुष ( श्रच्छिदरेण ) निरन्तर ( पाणिना ) पने उपदेशरूप
व्यवहार से सव विचार्घरो को ( चिविनस् ) प्रकाश करं वैसे ही कृपा करके प्रीति के साथ ( चः ) तुमको
श्रलयन्त श्नन्ढ करने के ज्िये ( प्रतिगरभ्णातु ) अहण करते ई ॥ १६ ॥
मावार्थः--इस मंत्र मे श्लेपालद्धार दै-- परमेश्वर सव मनुर्प्यो को चक्ति देताहै कि यन्त
का अनुष्ठान संग्रास में शनुओं का पराजय, श्रच्छे २ गुर्णों का ज्ञान, विद्वानों की सेवा दुष्ट मनुष्य वा दुष्ट
दोषों का त्याग तथा सब पदार्थों को शपने ताप से छिन्न भिन्न करने वाला असि वा सूय्य॑ और उनका
धारण करने वाला वायु है, ऐसा ज्ञान श्र इंश्वर की उपासना तथा दिद्वानों का समागम करके
झौर सब विदामो को प्राप्त होके सवे लिये सब सुखे की उपपन्न करने वाली उन्नति सदा
करनी चाहिये ॥ १६ ॥
धृष्टिरसीर्यस्य ऋषिः स एव । अभ्निदेवता । ब्राह्ी पंक्तिश्ठन्दः । पंचमः खरः ॥
अब अध्िशब्द से किस २का ग्रहण किया जाता ओर इससे क्या २ कार्य दोता है
इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है ॥
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