प्राचीन भारतीय कलात्मक एवं साहित्यिक परंपरा में पेड़ पौधे और वनस्पतियाँ | Tree And Plant In Ancient Indian Artistic And Literary Traditions
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
30 MB
कुल पष्ठ :
287
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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जैसे विद्वान शामिल हैं। सभी ने एकमत से यह स्वीकार किया है कि वृक्ष-वनस्पतियों मे प्राण तत्व
का सिद्धांत वैदिक-काल से ही प्रचलित था। क्रुक्स के अनुसार सूक्ष्म प्राण एक शक्ति है जिसे जीवन
का आधार कहा जा सकता है। इसी शक्ति से शरीर के समस्त भीतरी और बाहरी व्यापार संपन्न
होते है। वनस्पतिशास्त्रियों ने इसके लिये मैग्नेटिज्म-चुम्बकत्व, वाइटिलिटी-प्राणशक्ति और वाइटल
फोर्स-प्राण आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है । वनस्पतियो के शरीर में प्राण, अपान, उदान,
व्यान और समान ये 5 प्राण काम करते है । उनमें शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गंध की अनुभूति होती
हे। उष्मा से न केवल पुष्प एवं फल मुरझा जाते हैं अपितु पत्ते व शाखाएँ भी प्रभावित होते हैं । इसी
तरह इन पर शीत का भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वृक्ष-वनस्पतियों को स्पर्श
ज्ञान भी है। वे शब्द ग्रहण करते एवं समझते हैं। उन पर संगीत एवं भावनाओं का व्यापक प्रभाव
पडता है। लतायें वृक्ष को आवेष्टित करते हुए आगे बढ़ती हैं अतएव उनमें दृष्टि भी है ।! वैशेषिक
दर्शन के अनुसार पेड़-पौधों को पंचतनमात्राओं से युक्त माना गया है। जड़ समझे जाने वाले वृक्षों के
कार्य व्यापारो को अनुप्रेरित करने वाले प्राण चेतना के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
वनस्पतिशास्त्रियो ने प्रोरोप्लाज्म को जीवन का भौतिक आधार माना है जौ निर्जीव वस्तुओं मे नहीं
होता। वृक्षों में जीवों की तरह ही प्रोरोप्लाज्म होता दै जो उनके प्राणचेतना से संपन होने का सबसे
बडा प्रमाण है ।
विकासवादी वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन के अनुसार समूचा जंतु एवम् वनस्पति जगत बहुत सरल
एवं निम्न श्रेणी के जीवधारियों एवं वनस्पति से विकसित होते-होते विकास की इस अवस्था में
पहुँचा है। इस प्रकार जब हम विकास मार्ग को खोजते हुए पीछे जाते हैं, तो पौधों तथा जानवरों के
आदिम रूप पर पहुँचते हैं । डार्विन का मानना है कि इस स्तर पर पौधों तथा जंतुओं में कोई अंतर
नहीं था ओर तब दोनों का मूल एक ही था। कालांतर में किन्हीं कारणो से इन मूल प्राणियों का
विकास दो दिशाओं में हुआ जिससे वनस्पति एवं जन्तु का प्रादुर्भाव हुआ। तात्पर्यं यह कि डा्विन ने
भी अपने विकासवादी सिद्धांत कौ प्रक्रिया में वनस्पतियों को प्राणयुक्त माना हे ¢
अभी हाल हौ मेँ किये गये एक शोध से पता चला है कि पेड-पौधों के पास भी बिल्कुल मनुष्यो
जैसी ही अपनी रक्षा प्रणाली होती है। जन कोई इनके पत्तों को तोडता है या किसी अंग को नुकसान
पहुँचाता है तो वे इसका प्रतिरोध करते हैं । इसे ' प्रेरित प्रतिरोध' की संज्ञा दी गयी है| कैलीफोर्निया
विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अनुसार हम पेड़ों की प्रतिरोध प्रणाली मेँ अगर व्यवधान न करे तो
पेड़-पौधों का प्रतिरोध कीड़ो-मकोड़ों से मुकाबला करता रहता है। पत्तियों पर इल्ली के बैठते ही
पेड -पौधे पत्ती के ऊपर जेस्मोनिक अम्ल कौ मात्रा बढा देते है । इस अम्ल से पत्तो पर एक ऐसा
रसायन पैदा होता है जिससे इल्ली या अन्य कीड़े-मकोड़े भाग खड़े होते हैं । इस प्रेरित प्रतिरोध को
मदद से पौधे अपनी पत्तियों की रक्षा करते हैं ।
1 अखण्ड ज्योति, मथुरा, मार्च 1997, पृ० 9-101
2... वही, पृ० 101
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