प्रज्ञा के पथ पर | Pragya Ke Path Par

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Pragya Ke Path Par by रोहित मेहता - Rohit Mehata

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झा के पथ पर क्षेत्र के रुप में श्रेर घुतराष्ट्रके पुत्रों को आत्मविकास ग्रहण किया जा सकता है ।”” फ जब हम मनोव॑ज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं, तब ता है । गीता द्वारा प्रतिपादित जीवन इती है, बयोंकि वह सानव के आन्तरिक सानव के इतिहास में यह पि इतना भीषण रह होगा जितना आज है । इसो- म सन्द की उपयोगिता भी कभी इतनी नहीं रही होगी जितनी आं ॥ र ड <, न्स 2. ~ 1 सी १ 31 „^ ~ )} 1 ,} + | | 5 | (भ ते प्र ५१ 9 0! के १! 0 + 9 -9 | £ १ | ज की ` ५4 > ॐ ना 3, 4 १ नि > ८1 4 «01, 8} ~+ २९ 1 ~~ 03} + 1. ल ५ ~ प] न्म्ल का 4 तप १ . ~ ~ „2 7 ~ + % ~ 1 +) | [9] भ ५] डा ८ य | „ % # /211 | (१ (41 ५ सि | २ = पु ५ मो कीः £| न. ~ र | { 3 १५५ 9, ५ 1) ५2 „4 > 2 था 1, ^< ५१ < ^] ^ (1 € प्र वौ 441 ‡ | <= ॐ 41 ट 1 तप नस ^| <¬|> 2 श्र सद (भ श्फि (तप्र < ४१ 4, +4/ क्‌ जीवन से रुख-सन्तोपक्षीणसेक्षीणतरदहोतेजा रह हैं। और यंत्रविद्या [ टेवनालाजी ) के इस युग में क्या कारण हैं कि मानव का यह्‌ अन्त ऐसा उत्कट रूप धारण कर रहा है? यह निश्चित है कि मानव का यह सारा संघर्ष, श्रमुखरूप से भले न हो, अधिकांश तो मानद की अपनो मनःस्थत्तिकं कारण हौ है। वस्तुतः मन दही मानव कं बल्वन का ओर उसकी मुक्ति का भी मूल हैं। जिस मात्रा में मन का विकास होता जाता है, उसी मात्रा में मानव-जीवन की जटिलता बढ़ती जाती है। मन के उन्नत होने के साथ-साथ मनुष्य दो संसारों का निवासी बनता है--एक बादूय परिस्थितियों का संसार, और दूतरा आन्तरिक कामनाओं का संसार । अविकसित मनोदला में इन दो संसारों के बीच का फासला अत्यत्प होता है; और ज्यों- ज्यों मन उन्नत और विकसित होता जाता है, त्यों-त्यों वह फासला इतना बढ़ता जाता है कि दोनों का समन्वय करना दुःसाध्य हो जाता है । नित्य निरन्तर बढ़ते हुए इस अन्तर मं आज का मानव जी रहा है और इसी के परिणामस्वरुप नित्य-जीवन में वह नाना प्रकार के तनाव, परेशातियाँ, दबाव और यातनाएं भोग रहा हू । आज मानव के मन का इतना अमर्याद चिकास हो गया हैं कि कई विचारक इसत युग को “'मनोयुग” कहने लगे हैं। आज हम मनोयुग में जी रहे हैं और इसलिए, हमारे युग की मूलभूत समस्या मन की समस्या है । आज का ज्वलन्त प्रश्न भी यहीं है कि मन:दक्ति की वृद्धि के साथ निर्मित इन मानसिक तनावों और अन्तद्व यों से मानव सुक्‍त कँसे हो, और यह मानव- मन वेषिनिक संकत्प और व्यक्तिगत संकत्प में संगति कैसे निर्माण कर सके ? आधुनिक मानव की इन समस्याओं की पृष्ठभूमि में ही गीता के उपदेशों का व!द्तविक मूल्यांकन हयो सकेगा । क्योकि गीता मानव-मन की समस्याओं का [ ४ | ~+) गा ५ न्द ~ < 41.




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