हे ज्ञानदीप आगम प्रणाम | He Gyandeep Aagam Pranam

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He Gyandeep Aagam Pranam by रमेशचंद्र जैन - Rameshchandra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ः 10 रद ददद है, अत: मैं अपना आचार्य पद तुम्हें सौंपता हूँ ।'' अपने गुरू के मुख से यह वचन सुन मुनि विद्यासागर आश्चर्यान्वित हो गए । भावुकता के उन क्षणो मेँ वे अपने. कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सके । आचार्यं श्री ने उन्हें पुनः समञ्ञाकर अपने आसन का त्याग कर दिया ओर मुनि विद्यासागर जी को अपने आसन पर बैठा दिया, स्वयं नीचे आसन पर बैठ गए । विरक्ति के इन क्षणो मे उन्हनि आचार्य विद्यासागर से निवेदन किया - हे गुरुवर आचार्य विद्यासागर जी महाराज ! मेरे ऊपर कृपा करो, मैं आपके सान्निध्य मे सल्लेखना ग्रहण करना चाहता हू, मेरे ऊपर अनुग्रह कौजिए। आचार्य श्री विद्यासाधर जी ने अपने गुरु के भावों को भली भोति हृदयङ्गम कर उन्हें सल्लेखना ग्रहण करायी । उन्होंने धीरे-धीरे समस्त रसां का त्याग कर अन्त में जल का भी त्याग कर दिया ओर समता भावपूर्वक ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या (१ जुन १९७३) के दिन प्रातः दस बजक ५० भिनट पर देहोत्सर्गं किया ! यद्यपि उनके नश्वर शरीर का अन्त हो गया, किन्तु वे अपनी साहित्यिक मनीषा ओर चारित्र महिमा से युर्गो-युगों तक लोगो के हदय मेँ जीवित रहेंगे । आचार्य श्री ज्ञानसागर : मनीधियों की दृष्टि में आचार्य श्री विद्यासागर - अपनी भुजाओं द्वारा अपार सागर को जिस प्रकार पार करना कठिन है, उसी प्रकार गुरू की महिमा का मन में विचार कठिन है, किन्तु उस सागर के तट पर जाकर विनयाज्जलि अर्पित कर सकते हैं, इतनी क्षमता तो हमारी है । आचार्य ज्ञानसागर जी ने जो दायित्व मुझे दिया है, उसका निर्वाह करने का ध्यान जीवन की हर घड़ी में चाहे दिन हो या रात हर समय विद्यमान रहता है । चलना कठिन है, चलाना उससे भी अधिक कठिन है । बहुत चलने वाले व्यक्ति को भी ऐसा लगता है कि चलाने की क्षमता न हो । बहुत बड़ा विद्वान भी पढ़ाते समय 'ऐसा लगता है, जैसे स्वयं पढ़ रहा हो । पुत्र पिता का उत्तराधिकारी होता है, पिता अपना वैभव अन्त यें पुत्र को सप जाता है । वह चाहता है किं जो परम्परा चली आ रही है,




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