धर्म का स्वरुप | Dharm Ka Swarup

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Dharm Ka Swarup by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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41 परमे प्रकट होता दै, जो कुं र्ट हो रहा दै, वह उन्हों का आनन्द रूप है उन्ही का अमृत रूप है. अर्यात्‌ उनका प्रेमहै। विश्व-जगद्‌ उनका अमृतमय आनन्द है, उनका प्रेस है सत्य की परिषुर्णता हो प्रकट होना है, सत्य की परिपूर्णता हो प्रम है, आनन्द है । हमने तो. लौकिक व्यापार ही देखा है, अपूर्ण सत्य अपरिस्फुट होता है । गौर यह भी देखा है कि जिस सत्य को हम जितने सम्पूर्ण रूप मे उपलब्ध करेंगे, उसी में हम उतना ही आनन्द, उतना ही प्रेस होगी । उदसीन के निकट एक तिनके में कोई आनन्द नहीं है,




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