सवत्सरी | savatsari

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savatsari by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सेकसरी 1] कतिक शुक्ला ७ उव तक तुम्हारा मालि श्रौर हदय भिदा श्रौर अता को समान रूप में नहीं अहण करता, तमझना चाहिए कि तुमने तब तक परमात्मा को पाहिचाना ही नहीं है । रः ., .) ( अर्षा श्रीर निन्दा चुनकर हर्ष श्रौर षिषाद की उत्पपि वृद्धि के विकार के कारण होती है । बुधि का यह विकार परमात्मा की आार्थना हे निर्दोष हो जाता है । , # - ऋ , के जिस दिन पृथ्वी पर प्रतित्रता का श्र्ित्त नही रहेगा, उत्त दिन सूर्य, पृथ्वी और समुद्र अपनी-अपनी मर्यादः त्याग देगे । । , # कक र जो पुरुष परधन और परी से सदव यलपूर्वक वक्ता रहता है, उसका कोई कुद्ध मी नरह विगाद्‌ सकता । श्र डर कैः शः तुहारे तुंस्कारो को इुसत्कार दबा देते हैँ शौर तुम गृफूलत में पढ़े रहते हो ! इढ़ता के साथ आपने सु्तत्कारों की रक्षा करो तो आत्मा की बहुत 'उच्चति होंगी । 7... 7




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