पांतजल योगदर्शनम | pantjal yougdarshanam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
402
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समाधिपाद: । ( ११ >
भ्रधानता को धारण करके क्तैज्य झीर अकरतेव्य के विभाग को शला
देती है तथा क्रोधादिक्तौ के चश्तमे डाल कर चिप्त को सदा धुरे.
- कमो मे हयी फंलाये रखती है यदह भूमिका राच्तसख छौर पिश्याल लोगों
को प्राप्त रदती है. । विक्षिप्ताचस्था घद है जिस मे सस्वशुरण
थी सझधिफता से विशेष रूप से डुम्ख के साधनों को दूर करके
श्यस्त फे साधन शब्दादिकं षीम जो लगे रहै उसे विच्तिप्त
भूमि कहते है; फलितार्थ यदह दश्वा फि रजोगण से स्वसा
रिकि विपयोौमे चित्तको भति चछोती है । तमोशणले दुख के
अपकार करने छीर सत्वर से खमय चिन्त दोता है । यष तीर्न
अचस्था समाधि मै सदायक नीं होती ह 1 प्सकाग्न पीर निरु यष्ट
दोनों वस्था निर्मल शौर अन्तिम द्ोनेके कारणस योगमें सायक
होनी ह । रजोखुण शौर सतोश्ण तश्चा दनष्टी शयस्याश्चो च्तो च्यागः
ना चादिष्ट ( अथचा रजेोख्छुर फे ष्ठाय छख रूप जान पड़ते हैं झौर
तमोशुख के फारच परिश्रम रूप एोने से दुःख रूप जाने जते च) इस
धतु से रजोख्ण फो मथम लिखा है । भचृत्ति के चिन। दिखलाप नि-
श्रेत्ति नां षो सूनः दै धसल्िये उनपते श्रटृति फते शासन कार ने दिख
लाया हे किन्तु योग खी शरत्यन्त रूदायफ ष्ठाने के कारण सत्वश्ण
भी भवृति दिखखलानी तो यहतद्ती ्ादश्यक थी । पका जीर निरुद्धा-
खस्थश्रौमें.जो चिन्त का पकाध्नता रूपी परिणाम दधोता है उसे ही
योग च्हते द षपाकि चित्तके प्काश्र एोने दी से घाएर की ति सक्
साती हे पम् ृतियौ के रुकने से सच एति शीर संस्कारौ कालय
हो जाता है इस, में निरुद्ध 'ौर पका भूमि दी में योग दो सक्ताऐँ ॥ २
तदाद्रष्टुःखरूपे ब्वस्थानम् ॥ २१
खू० का पदाथे-( तदा > उस समय ( ष्डुः )
देखने चालेकी निर्विकल्प संसांघिस्थ जीवकी (स्वरूपे )
्मात्मचिन्तन मे ( यचस्थानम् ) 'सचररिथित ॥
सू का भावार्थ--जव चित्त की समस्त - चूचियों का नि-
शेध हो नात्ता दे तव समाधिस्य होकर जीवात्मा केवल झपने-
.रूपफो ही देखतां रै यर उसी का विचार फरता रै (यद द-
भा निर्विकल्प-समाधिमें दोत्ती रै) ः
User Reviews
No Reviews | Add Yours...