महाकवि हरिऔध | Mahakavi Hariaudh

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Mahakavi Hariaudh by गिरिजादत्त शुक्ल - Girijadatta Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ हाकवि दरि्रौष उसकी सरसता श्रौर श्रलंकारिक कुशलता का समुचित सरकार करने के लिए उत्सुक हैं तो भी यदद नहीं कहा जा.सकता कि भविष्य सें कोई कवि उपाध्याय जी की समता नहीं कर सकेगा । ऐसा नहीं है; दमारा तो दृढ़ विश्वासदै कि श्रागे चल कर हमारे साहित्यकारों में से बहुत से ऐसे भी निकलेंगे जो स्वेतोमुखी प्रतिभा और व्योम-घुम्बिनी कल्पना से संसार के श्रे कवियों की समता का मौर अपने उन्ज्वल मस्तकों पर वँधवार्णैगे । हिन्दी-सादित्य क पूरण विकास का यो्तक 'प्रिय-प्रनास' कदापि नहीं । वह तो केवल शताव्दियों की निशीथ-निशा के वाद उन्नतिउपा का दिव्य दूत है; और साहित्य-दृष्टि से इस महा- काव्य का इसी में महत्व है। “प्रिय-प्रवास” अतुकांत छन्दों में हिन्दी का प्रथम महाकाव्य दै । दरसका अर्थ यह है. कि पुष्य कवि से लेकर उपाध्याय जी कै पूवं तक किसी भी हिन्दी-कचिने दस विस्तार के साथ अतुकान्त कविता नहीं रची । तुक की नकेल में वेधी हुई दमारी कविता “कोमल कान्त पदावली की परिक्रमा करती रही । इस श्रसवा- भाविक ओर हानिकारक दासत्वं को तोड़ कर स्वच्छन्द्‌ विष्वरने का पहले पहल साहस उपाध्याय जी ने किया 1 इस सम्बन्ध मे प्रसिद्ध विद्धान्‌ श्रीमान्‌ काशीप्रसाद जायसवाल का कथन भी पाठकों के देखने योग्य है -- (“न्तं के अनुप्रास के चिना छन्दों में पण्डित श्योध्यासिंह उपा- ध्याय ने इसकी रचना की है । काव्य-विषय श्रीकृष्ण का ब्रज से वियोग हू. । उपाध्याय जी ने; कुछ वषे हुए, एक नई शेली की दिन्द्री अपने दिल में पैदा की । 'ठिठ हिन्दी का ठाटः और “झधघखिला फूल' इसके उदाहरण हैं। उपाध्याय जी की ठेठ भाषा देखने सें इतनी सरल कि उससे और सरल लिखना श्रसम्भव हे, लिखने में इतनी कठिन कि दूसरे किसी ने श्रलुकरण की हिम्मत ही नहीं की । - “वही पण्डित 'झयोध्यासिंद् आज एक विलकुल दृसरी शैली मे, और पद में, फिर एक नई चीज़ लेकर सामने 'आये हैं। आपको _ साहित्य सें नये राज्य स्थापित करने की छोड़ दूसरी वात पसन्द नहीं




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