दशाश्व मेघ | Dashashv Megh

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Dashashv Megh by श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र -Shri Lakshminarayan Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कृ | नाना ( ४ फ) विचार नाट्ययहों के निर्माण में वरावर रहता था; चाहे ये गाँगों में वर्ते, नगर मे, तीर्थो में या राजधानियों में । दर्शकों की रुचि और स्थान विशेष के साधन के अ्रनुसार वड़े या छोटे आकार के नाय चनते थे। यज्ञों और दूसरे घार्मिक अवसरों पर नाटक देखना धर्म माना गया था । जिस विपय का; जिस वस्तु या परिस्थिति का असिनय नाटक में करना हो उसकी स्वासाविकता ही सारतीय नाटक का चरम ल्य रही है। नाव्यशास्र का विस्तृत विवरण इसी ओर संकेत करता है । सरगुजा करी रमगद्‌ पहाड़ी की युष्म, उदयगिरि की रानी शरीर गरे गुफा, कालिदास के काव्यों में 'द्रीएहा” श्रौर 'शिलाविश्म” उस युग की नाथ्यशालायें हैं । सारतीय संगीत, काव्य श्रौर नाटक का सम्बन्ध गरस्पर गहरा रहा है । इन सब का मूल सोत वैदिक और उससे भी पहले के काल में सोहेंजोदड़ो और हड़प्ा की साव सूर्तियों में बहुत गहरे जा पहुँचा है । अवर्पए और सहामारी की सयानक परिस्थिति सें थी जहाँ गीत श्रन्नात काल से गाया जाता है वहाँ नाटक या कोई सी कला किसी से ऋण ले कर नहीं; अपने स्वाभाविक काम में विकसित हुईं थी । रुचि और कालभेद को ध्यान में रख कर जहाँ तक वन पड है इस नाटक का सम्बन्ध मैंने संस्कृत नाटक के पुराने सिद्धान्तों के . साथ जोड़ना चाहा है ऊपरी आकार इसका, ाधुनिक है पर सावलोक में रत के विद्ान्तो के अनुसरण भर का प्रयत्न मेरा रहा है । इस कार्य में मुखे कितनी सफलता मिली है इसकी चिन्ता थी मुखते इसलिए नहीं होगी कि कर्म मुखे करना था पल कर शा से कुद वनने को नही है। र




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