श्रावकाचार संग्रह | Shravakachar Sangrah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
422
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्ताव ना ः „ भ
सभीने पूवं या उत्तर कौ गोर मुख करके पूजन भौर जाप करने का विघान किया है ।
, “ :' पर दौरतरामजीने मष्ट ` मृल्गुणोके -वर्ण॑न॑से साथ ही अभक्ष्य वस्तुमोने त्यागका, चौक, `
` चक्की, परंडा आदिको श दिका, रजस्वला-प्रसूतादि स्त्रीके हाथसे स्पर्शी वस्तुमोकी भग्राह्यता
. का, मौर सप्त व्यसनों का जैसा भावपूणं वर्णन किया है, वह् पृते ही वन्ता हे । शेष दोनों के
वंणंनमें वसी भावपुणं सरसता.नहीं है । |
इसी प्रकार व्रत्ती श्रावकके नहीं ' करने-योरय व्यापारोका, सम्यक्त्वके भेदोका विरद
मौर सरसं वणन तथा अहिसाणुव्रतके वणंनमें दया का अपुवं विस्तृत वणंन भी वार-वार पंढ़ने
के किए मन उत्सुक रहता है ।
` , पदम कविते सामायिकके ३२ दोषों का वणंन तीसरी प्रतिमामे किया है ।. किन्तु किशन
. सिंहजोने टूसरो ही प्रतिमामें किया है । पर दौलतरामजीने उनंका कहीं कोई वर्णन नहीं किया
है | इन वत्तीस दोषोंका वर्णन अनेक श्रावकाचार-कर्त्ताओंने भी किया है । पर वस्तुत्तः ये दोष
साधुमोके किए ही मूकाचार आदिमे वतलाये गे हँ । श्रावकरको जितना संभव हो, उतने दोषोसे
` वचने का प्रयत्न करना चाहिए | -
पदम कविने चार शिक्षा वर्तका वर्णन कुन्दकुन्दके अनुसार किया है, किन्तु किशन्सिह्
` जी गौर दौलत रामजोने तत्त्वा्थसूत्रके भनुसार किया है। - .
श्रावकके १७ नियमोका वर्णन तीनोनि ही किया है ।
मन्तमें एक ही प्रन विचारणीय रह् जाता है कि किशन सिंहजीके द्वारा सांगानेर (राज-
स्थान) में रहते हुए स १७८४ में क्रिया कोषक्रो रचना-क रनेके, केवर ११ वृषैके बाद ही दौलत
रामजीने उदयपुरमें अपने क्रिया कोषकी रचना क्यों की ? दोनों क्रियाकोषोको गंभीर भौर सूक्ष्म
, ` दुष्टिसे देखनेपर हम दो निष्कर्षोपर पहुंचे हैं । प्रथम तो यह कि संभव है कि दौलत्तरामजीको
` / किशनर्सिहूजीके क्रियाकोषके दांन ही नहीं हुए हों। भौर संस्कृत क्रियाकोषके मिलनेपर उन्हें
उसकी; उपयोगिता प्रतोत होनेसे भाषा छन्दोमे सवंसाधारण पाठकोके किए उसकी रचना करना
' आविष्यक प्रतीत हुआ. हो । |
। दूसरा कारण यह् भी संभव है कि किशनर्सिहूजी-रचित क्रिया कोपमें उन्हें भट्टारकीय या
वीसपन्थ-माम्नायकी गन्ध . भाई हो और इसलिए उन्होंने विशुद्ध, तेरापन्थ-आम्नायके ` अनुसार
` क्रियाकोषको स्वत्त॑त छन्दोवद्ध रचना करना मभीषट रहा हो । |
किरनसिहूजीके क्रियाकोषमें वीसपन्थकौ गन्ध भानेके कुछ स्थल इस प्रकार हैं--
(१) मध्याह्न पुन-समए सु एह, मनुहरण कुसुम वहु देखि देह 1 . ¦
अपराह्न भविक जन करिह एव, दीपद चढाय वहू धृप सेद् ॥३५॥
( प्रस्तुत संग्रह पृ० २०४ )
(२) जो भविजन जिन-पूजा रवै, प्रतिमा परसि पखालहि सच ।.
मौन-सहित ` मुख कपड़ो करे, विनय . विवेक हरष चित्त धरे |४८॥
प्रस्तुत संग्रह पृ० २०५ )
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