श्रावकाचार संग्रह | Shravakachar Sangrah

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Shravakachar Sangrah  by पं. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री - Pt. Hiralal Jain Siddhant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्ताव ना ः „ भ सभीने पूवं या उत्तर कौ गोर मुख करके पूजन भौर जाप करने का विघान किया है । , “ :' पर दौरतरामजीने मष्ट ` मृल्गुणोके -वर्ण॑न॑से साथ ही अभक्ष्य वस्तुमोने त्यागका, चौक, ` ` चक्की, परंडा आदिको श दिका, रजस्वला-प्रसूतादि स्त्रीके हाथसे स्पर्शी वस्तुमोकी भग्राह्यता . का, मौर सप्त व्यसनों का जैसा भावपूणं वर्णन किया है, वह्‌ पृते ही वन्ता हे । शेष दोनों के वंणंनमें वसी भावपुणं सरसता.नहीं है । | इसी प्रकार व्रत्ती श्रावकके नहीं ' करने-योरय व्यापारोका, सम्यक्त्वके भेदोका विरद मौर सरसं वणन तथा अहिसाणुव्रतके वणंनमें दया का अपुवं विस्तृत वणंन भी वार-वार पंढ़ने के किए मन उत्सुक रहता है । ` , पदम कविते सामायिकके ३२ दोषों का वणंन तीसरी प्रतिमामे किया है ।. किन्तु किशन . सिंहजोने टूसरो ही प्रतिमामें किया है । पर दौलतरामजीने उनंका कहीं कोई वर्णन नहीं किया है | इन वत्तीस दोषोंका वर्णन अनेक श्रावकाचार-कर्त्ताओंने भी किया है । पर वस्तुत्तः ये दोष साधुमोके किए ही मूकाचार आदिमे वतलाये गे हँ । श्रावकरको जितना संभव हो, उतने दोषोसे ` वचने का प्रयत्न करना चाहिए | - पदम कविने चार शिक्षा वर्तका वर्णन कुन्दकुन्दके अनुसार किया है, किन्तु किशन्सिह्‌ ` जी गौर दौलत रामजोने तत्त्वा्थसूत्रके भनुसार किया है। - . श्रावकके १७ नियमोका वर्णन तीनोनि ही किया है । मन्तमें एक ही प्रन विचारणीय रह्‌ जाता है कि किशन सिंहजीके द्वारा सांगानेर (राज- स्थान) में रहते हुए स १७८४ में क्रिया कोषक्रो रचना-क रनेके, केवर ११ वृषैके बाद ही दौलत रामजीने उदयपुरमें अपने क्रिया कोषकी रचना क्यों की ? दोनों क्रियाकोषोको गंभीर भौर सूक्ष्म , ` दुष्टिसे देखनेपर हम दो निष्कर्षोपर पहुंचे हैं । प्रथम तो यह कि संभव है कि दौलत्तरामजीको ` / किशनर्सिहूजीके क्रियाकोषके दांन ही नहीं हुए हों। भौर संस्कृत क्रियाकोषके मिलनेपर उन्हें उसकी; उपयोगिता प्रतोत होनेसे भाषा छन्दोमे सवंसाधारण पाठकोके किए उसकी रचना करना ' आविष्यक प्रतीत हुआ. हो । | । दूसरा कारण यह्‌ भी संभव है कि किशनर्सिहूजी-रचित क्रिया कोपमें उन्हें भट्टारकीय या वीसपन्थ-माम्नायकी गन्ध . भाई हो और इसलिए उन्होंने विशुद्ध, तेरापन्थ-आम्नायके ` अनुसार ` क्रियाकोषको स्वत्त॑त छन्दोवद्ध रचना करना मभीषट रहा हो । | किरनसिहूजीके क्रियाकोषमें वीसपन्थकौ गन्ध भानेके कुछ स्थल इस प्रकार हैं-- (१) मध्याह्न पुन-समए सु एह, मनुहरण कुसुम वहु देखि देह 1 . ¦ अपराह्न भविक जन करिह एव, दीपद चढाय वहू धृप सेद्‌ ॥३५॥ ( प्रस्तुत संग्रह पृ० २०४ ) (२) जो भविजन जिन-पूजा रवै, प्रतिमा परसि पखालहि सच ।. मौन-सहित ` मुख कपड़ो करे, विनय . विवेक हरष चित्त धरे |४८॥ प्रस्तुत संग्रह पृ० २०५ )




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