स्मृति ग्रन्थ | Smrati-granth

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Smrati-granth by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ गुजरात देश में विघरण कर इन्होंने वसतिमार्ग को प्रकट किया । जिनदत्तसूरि की इसी तरह की एक भौर छोटो सी (२१ गाथा की) प्राकृत पद्य रचना है जिसका नाम है-सुगुरु पारतन््य स्तव 1 इमे जिनेद्वरसूरि की स्तवना मे वे कहते है कि जिनेश्वर अपने समय के युगप्रवर होकर सवं सिद्धान्तो केज्ञाताये। जेन मततर्मे जो शिथिलाचार रूप चोर समूह्‌ का प्रचार हो रहा था उसका उन्दने निश्चल रूपसे नि्दलन क्रिया मणदटिल्वाडमे दुलमराज कौ सभा मे द्रव्य लिंगी ( वेशघारी ) रूप हाथियों का सिंह की तरह विदारण कर डाला । स्वेच्छाचारी सूरियो के मतरूपी अन्घकार का नाश करने में सूर्य के समान थे जिनेदवरसूरि प्रकट हुए । जिनेश्वरसूरि के साक्षात्‌ शिष्य प्रशिष्यों हारा किये गये उनके गौरव परिचयात्मक उल्लेखो से हमें यह अच्छो तरह नात हुभा क्रि उनको आंतरिक व्यक्तित्व केसा मतान्‌ था । जिनदत्तसुरि के किये गये उपयुक्त उन्लेर्खो मे एक ऐतिहा- सिक घटना का ट्मे सूचन मिला क्रि उन्होंने गुजरात के अणरिलश्ाड के राजा दुलुंभगज कौ समामे नामधघारी आचर्यो के साथ वाद-विवाद कर उनको पराजित किया और वहम पर वसत्तिवास कौ स्थापना की } श्रो जिनचन्द्रसुरि जिनैश्वरसूरि के पटर दिष्य जिनचन्द्रसुरि हुए । अपने गुरु के स्वर्गवास के वाद यही उनके पटु प्र प्रतिष्ठित हुए गौर गण प्रघान वने । इन्होंने अपने बहुश्रुत एवं विस्यात-कोर्ति ऐसा ल्घु गुरु-वन्धु मभयदेवाचायं की अभ्यर्थना के वश होकर सवेगरगधाला नामक एक सवेग भाव के प्रतिपादक शातरस प्रपुणं एव बृहद प्रमाण प्राकृत कथा ग्रन्थ की रचना स० ११२४ में की । ] थी अमयदेवसुरि जिनेश्वरसूरि के अनुक्रम में शायद तीसरे परन्तु ख्याति भौर महत्ता की इृष्टि से सर्वप्रथम ऐसे महान शिष्य श्री अभयदेवसूरि हुए, जिन्होंने जेनागम ग्रन्थों मे जो एकादश- गड्ध सुत्र ग्रन्थ है, इनमें से नो अग ( ३ से ११ ) सूत्रों पर सुविशद सस्कृत टीकाए बनाई । अभयदेवाचार्य॑ अपनी इन व्याख्पाओ के कारण जैन साहित्याकाश मे कल्पान्त स्थायी नक्षत्र के समान सदा प्रकाशित और सदा प्रतिष्ठित रूप में उलछिखित किये जायेंगे । दवेताम्बर सप्रदाय के पिछले सभो गन्छ और सभी पक्ष वाले विद्वानों ने अभयदेवसुरि को बडी श्रद्धा और सत्यनिष्ठा के साथ एक प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी आचार्य के रूप में स्वीकृत किया है और इनके कथनों को पुर्णतया भाप्वाक्य की कारटि में समका है । अपने समका- लीन विद्वत्‌ समाज में भी इनकी प्रतिष्ठा बहुत उंची थी। शायद ये अपने गुरु से भी बहुत अधिक आदर के पात्र और श्रद्धा के भाजन बने थे । श्री जिनदत्तसूरि जिनदत्तसूरि , जिनेश्वरसूरि के साक्षात्‌ प्रदिष्यो में से ही एक थे। इनके दीक्षागुरु धर्मदेव उपाध्याययेजो जिनेश्वर सूरि के स्वहस्त दीक्षित मन्यान्य शिष्यों मे से थे । इनका मूल दीक्षा नाम सोमचन्द्र था, हरिसिंहाचार्य ने इनको सिद्धान्त ग्रन्थ पढाये थे । इनके उत्कट विद्यानुराग पर प्रसन्न होकर देवभद्राचायं ने मपना वह्‌ प्रिय कटाखरण (लेखनो), जिससे उन्होने पने बडे-वडे चार ग्रन्थों का लेखन किया था, इनको भेंट के स्वरूप में प्रदान किया था । थे बडे ज्ञानी ध्यानी और उद्यतविहारी थे । जिनवछलभसूरि के स्वगंवास के पश्चात्‌ इनको उनके उत्तराधिकारी पद पर देवभद्राचाये ने आचायें के रूप मे स्थापित किया था 1 [कथाकोष प्रकरण की प्रस्तावना घे]




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