पावस - प्रवचन | Pavas - Pravachan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ के मन पावस-प्रवचत हैं । वैसे सृष्टि मे छ तत्त्व माने गये हैं--उनका सामान्य सम्बन्ध है, उस हष्टि से ईश्वर का सम्बन्ध है । परन्तु आत्मा की जागृति की हष्टि से वह भव्य स्वरूप आदं रूप मे जब प्रकाशित होता है तो भवि आत्मा की विकास भावना उमड उठती है खं वह्‌ अपने जीवन को प्रभु के तुल्य बनाने का संकल्प कर लेती है । भावों को अभि- व्यक्ति मे इसीलिए भक्ति अहकार-रहित विनख्रता को घारण कर लेती है । भक्त पर मात्मा को स्वामी की हष्टि से देखता है। किन्तु यहाँ यह विचारणीय तथ्य है कि स्वामी की हृष्टि से देखने का अथ॑ कया है ? स्वामी का अर्थ यह नहीं है कि भगवान्‌ तो सदा भगवान्‌ ही रहेगा और सेवक सेवक ही । जो स्वामी-सेवक के सम्बन्ध में एेसी कल्पना करते है, वह्‌ कल्पना अजानजन्य ही मानी जायगी ! ` परमात्सा के तुल्य बनने का सकल्प जञानीजन कां इस भक्ति के विषय --मे अभिप्राय यही रहता है कि--“में भी परमात्मा के तुल्य परिपू्णं शक्ति अपने अन्दर रखता हूँ और मैं एक दिन परमात्मा के तुल्य बन भी सकता हूँ ।” ऐसी भावना रखकर एवं निराशिमानी बनकर जब मानव साधना की अवस्था मे प्रविष्ट होता है तब वह स्वामी के आदर्श स्वरूप का अनुगामी वनकर स्वय भात्मस्वामित्व ग्रहण करने का सकल्प भी लेता है। इस साधना की स्थिति के भी अलग-अलग रूपक आते है । समता के अचुभाव के साथ जीवन की परिभाषा को समझने वाला साधक समस्त परिभाषाओ को उसी के व्यापक रूप मे देखता है । इस अवलोकन से वह सारे वस्तु स्वरूप के गुण-दोषो पर तटस्थ वृत्ति से चिन्तन करता है ओर उनके वीच अपने प्रगति पथको प्रशस्त बनाता है । इसे एक रूप से परिमात्मा की भक्ति कहे, किन्तु वास्तव मे वह्‌ स्वय की आत्मा- को साधना ही होती हे । साधक अपनी साधनाकौ दिशामे अपनी मौलिक बुद्धि एवं तुलनात्मक हष्टि से यह्‌ सोचता भौर देखता है कि भिन्न-भिन्न मान्यताएं ` साधन के किस-किस स्वरूप का वणन करती है भौर इन सब मे कौन-सा स्वरूप आदरणीय एव अनुकरणीय है! जो साधना का स्वरूप जीवन निर्माण की दिशामे आत्माको अनुप्रेरित कर उसकी तथां उन स्वरूपो की पहिचान करना जरूरी है--जो साधना के नाम पर जीवन को भूल-मुलैया मे डाल देने वाले होते है । इस पहिचान ओर परख कै लिएं वृद्धि का द्वार खुला रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता होती है । इसी चिन्तन को सच्ची प्रार्थना से सम्बल मिलता है । सृष्टि-कत्त व्य की भ्रमपुर्ण विारणा प्रमु की भक्ति के सम्बन्ध में एक भ्रमपूर्ण विचारणा भी मिलती हैं जिसे सम लेना चाहिए । कई लीगो की मान्यता होती है कि जो कुछ करेगा--भगवान ही




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