संस्कृति का दार्शनिक विवेचन | Sanskriti Ka Darshanik Vivechan

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
418
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)~ १ ९-~
आयाम-मनुष्य कौ एतिहासिक प्रकृति-मानव-सस्कृति कौ असिच्छिन्षता। सभ्यता
ओर संस्कृति मूल्यो के रूप मे--तम्यता की परिभापा आवश्यकतामो तथा अन्यायपू्ण
नियत्रण से मुच्तति-प्वृत्ति से मुषिति । सभ्यत्ता का अथं है उद्योग-तंत्रों की प्रगति तथा
सस्थावद्ध जीवन । सस्कृति की परिभाषा : वे क्रियाएँ जिनके ढारा मनुष्य वास्तविक
या कल्पित यथायथ॑ के निरुपयोगी रूपों से सम्बन्ध स्थापित करता है। संस्कृति एक
साध्यात्मक या चरम मृत्य है--सस्कृति की सार्थक्ता-सस्कृति, कल्पना ओौर यथार्थ-
सस्कृति केवल कल्पना की चीज नही--सर्ङृति गौर सभ्यता . सभ्यता सांस्कृतिक
किया की ही उपज है । उक्तं मन्तव्य का मानंरसवाद से विरोध । सास्कृतिक क्रिया के
अभ्यस्त रूम सभ्यता ह ! सस्कृति के स्तर-सास्कृतिक प्रौढता के प्रतिमान ` साकी की
भावना; निवेयक्तिकता-निर्वेयक्तिकता और सामान्यत्पता ! प्रतिभाशारी गौर
भ्रगतति-विदरोह् के अन्तनियम-विद्रोही शौर क्रासिकारी का भेद । प्रतिभाणाली उपेक्षित
यथार्थ के प्रवक्ता के रूप में-प्रतिभा गौर पांडित्य। सिद्रोह मानवीय सुजनरीरुता
की माग है। ऋन्ति-सम्बन्यी मारसंवादी मन्तव्य का खडन । मनुष्य की सृजनात्मक
जरूरते । इतिहास-ददांन की समीक्षा । सास्कृतिक दृष्टि से प्रगतिशील समाज प्रतिभा-
शाली की स्थिति की गोर बढ़ता है--आपत्तियाँ और उनका निराकरण । प्राचीन
सच्छृतियों का महत्व ! = ,,* क ०० १३९-२१०
अध्याय
का की प्रकृति
कला मे यथायं के रतिसकेत रहता है-सकं-मूखक माववादके मन्तव्य का खडन ।
कछा की परिभाषा रागात्मक सार्थकता चाले जीवन-क्षणी की सृष्टि या अभिव्यवित 1
गीत-काव्य-केया-मूलक साहित्य । क्रोचे के मत्त की सक्षिप्त समीक्षा । कला की
प्रासाणिकता-अनुभव और अभिव्यनिति । मनोचिद्छेपणवादी मन्तव्य की समीक्षा ।
कला का युग भर परिवेद्य से सम्वन्ध। कला और परिचित अनुभव-पोप और
जाँडेन के मत । कलाकार “क्लासिक्स” क्यो पढें * कलात्मक महत्व के प्रतिमान-
निर्व 'यव्तिकता-सामान्यरूपता में नवीनता। समीक्षा का स्वरुप और उपयोगिता-
समीक्षा की परिभाषा कठा-कृत्ति के विद्लेपण, व्याख्या और मूल्याकन का प्रयत्न ।
विदलेषण भौर व्याख्या का स्वरूप । आलोचना के सम्पदाय--सन्यवादी सिद्धान्त
मानदडो की मिन्नता की' व्याख्या। मनोवैज्ञानिक तथा समाजवास्वीय समीधा-
User Reviews
No Reviews | Add Yours...