समर्पण | Samarpan

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Samarpan by गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश' - Girijadatt Shukl 'Girish'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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युवजी की काव्य-घारा * ९७ क्रमशः इस श्र उन्मुख होती है शौर हिन्दी के कतिपय नवीन कवियों की उस काव्य-घाण के साथ संगम करती है जिसमें हृदय की भावनाओं को माषा-संगीत प्रदान करने की चहुत अधिक उत्सुकता दिखायी पड़ रही है । लेकिन युत्तजी के आत्म-निवेदन में एक विशेषता है । उनका कवित्वनिभर नारीप्रेम श्रीर वियोग के पर्वत से प्रसूत नहीं हुश्रा है; वह जो कुछ भी है; उत सौन्दय्य की चडान से टकरा कर प्रवा हित हुश्रा है जो वर्हिंमुखी होकर मानव-रुल्याणु-साधन में, तथा शन्तसु घी होकर हमारी भारतीय संत्क्त की सम्पत्ति स्वरूपा भक्ति के रूप में प्रगट होता है । श्राजक्ल जो श्ननेक सज्जन छायावादी कमि के जाते हैं, वे साकार रूप में नारी की उपासना भले दी कर लें, किन्तु अवतार. वाद को मान कर इश्वर की उपासना को उन्होंने तिलाझलि दे दी है । तुलसीदाप्त भले ही रामचन्द्र को परम सत्य की मानव मूर्ति के रूप में अंकित करें; सूरदास भले ही श्रीकृष्ण को उच्च पद पर द्ारूढ़ कर के काव्य के क्षीण पदों द्वार उन्दै ग्रहण करने की वेष्या कर, किन्तु वत्त मान गीति-काव्य के रतिक श्रनेक नव कवियों ने राम श्रोर कृष्ण से नमस्कार क्र लियादै) इस दृष्टि से आधुनिक्त कवियों में गुसजी की एक पथक्‌ विशेषता दै; उन्होने श्रीरामचन्द्र को अरवतार-ल्प म ग्रहण किया है और उसी प्रकार उन्हें परम प्रमु माना दै, जिस प्रकार अन्य भक्तगण॒ मानते श्रये रै । श्रा के परष्ठों में गुप्तजी के काव्य का एक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जायगा । ` दे २--गुप्तजी को रचनांओों की घवृत्तियाँ जैसा कि संकेत किया जा चुका है, हिन्दी के चत्त मान कवियों में चाचू सैथिलीशरण युप्त का एक विशेष स्थान हे 1 लगभग तीघ वर्षो तक | ।




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