राष्ट्रपति डॉ॰ पट्टाभि सीतारामैया का जीवन चरित्र | Rashtrapati Dr. Pattabhi Sitaramaiya Ka Jivan Charitra

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
128
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ २ |
३० मे ओर पुनः १६३६ ई० में मिनिस्ट्रीमें सम्मिदित होनेके लिये मुझे
निमन्त्रण दिया था, मेने स्वोकार नदीं किया । मेरी इस अस्वीकृतिको
लेकर ही अभी उस दिन गवर्नर-जेनरलने हंसीमें मुके सुना कर यह
कहा था,- हो सकता है कि यदि कांग्रेसका अध्यक्षु-पद आपको दिया
जाने लगे, तो उसे भी आप अस्वीकार कर सकते है । पर बात तो यह
है किमे किसी प्रकारका संकट नही खड़ा करना चाहता । मुझे इसका
पता था कि समस्त दश्षिण-भारतको यह सोच कर वेदना अनुभव हो
रही थी कि यद्यपि कांग्रेसके अध्यक्ष-पदके लिये सन् १६३६ ई० में में
उम्मेदवार था; पर पीछे में भुला दिया गया । मेंने कोई शिकायत नहीं
की । इस बार मेंने दिल्लोमें कतिपय मित्रोंसे परामश किया, किन्तु जब
हैदराबादके आत्म-समपणका तार मिला, तभी मेंने यदद अनुभव किया
कि अब रियासतोंके क्षेत्रमं मेरा काय॑ समाप्त हो गया और अब में
अधिक व्यापक-क्षेत्रमें कायरत हो सकता हूँ। निर्वाचनके पश्चात् मुभे
खगा कि यह अच्द्धा हुआ, जो निर्वाचन निर्विरोध नहीं हुआ । निर्विरोध
निर्वाचन तो गुजाराके लिये मिलने वाले भत्तेकी भांति होता है, क्योंकि
उसके लिये उस आदमीको कुछ काम तो करना नहीं पड़ता । यह
विचित्र बात है. कि कांग्रेसके इतिहासमें केवठ दो ही निर्वाचन जो लड़े
गये, उन दोनों दी मे मं एक उम्मेदवार रहा--१६३६ ई० में तो १६६
वोटोंसे हार गया था और अबकी ११४ वोटोंसे जीत गया हूं। इससे
गीताकी “सिद्धथसिद्धयोः समोभूत्वाः वारी शिक्षाका ममं भरी भाति
समममे आ जाता है ।
एक ओर वक्तव्यम डा० पद्राभिने कहा है, “मे चाहता था निर्बा-
चनमे वोट मांगनेके ल्थि दौड नहो ओरन वाद्-विवाद् ही । वाद-
विवाद तो नहीं हुआ; लेकिन मुझे भय है कि यही बात में वोट-भिक्षाके
विषयमे नहीं कह सकता । निर्वाचन आदशंके आधार पर लड़ा गया |
व्यक्तिगत कारणौको लेकर नहीं । गांधीवादके भंडेको ऊंचा रखनेका
हम उद्योग करेंगे। में सर्वप्रथम श्री राजेन्द्र बाबूको उनके उस कठिन
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