नीर - क्षीर | Nir- Kshir

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Nir- Kshir  by गंगा प्रसाद मिश्र - Ganga Prasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| एक चित्र चुके थे । उस दिन बगीचे से देर में आने के कारण बसंत से कहने लगे- 'बसंत; क्या झभी बगीचे से झा रहे हो ? तुम्हें किसी फूल की पंखुड़ियों सइलाने में क्‍या मज्ञा मिलता है, भौरों कौ भिनभिनादट तुम्हें केसे प्रिय लगती है; शायद तुम मतुप्य से अधिक प्रिय पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े लगते हैं। अच्छा होता यादि ईश्वर तुम्दें एक पेड़ बना देता; तुम प्रार्थना करे कि भगवान्‌ दुमे जामुन का एक 5 पेड बना द । आज से यदि रात को बगीचे गये तो मैं तुम्हारे पिताजी को पत्र लिख दूँगा ” बसंत ने सकर कहा; “'झच्छ्ा; अब नहीं जाऊँगा ।' बसंत ने साचा अव्र घर में ही फूल-पत्तियों रख लेगा; मन-बहलाव का साधन बना लेगा झऔर झपने कमरे को चारो ओर फूलों से सजा लेगा । कुछ उन्मन-सा अपने कमरे में बैठा बसंत साहित्य-सुषमा उठाकर पढ़ते लगा--- प्राकृतिक दृश्यों के पूव साहत्चर्य के प्रभाव से; प्रेम-भाव से; संस्कार या वासना के रूप में उसके प्रति हमारा प्रेम हमारे हृदय में निहित है । उनके दर्शन या काव्य में उनके परदशन ते अघुरंनन होत दै । जो प्रकृति-हृश्यों को केवल कामोद्दीपन की सामग्री समभते है, उनकी रुचि शष्ट हो ९१




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