रचना का इतिहास - दर्शन | Rachana Ka Itihas Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१८ |] [ रचना का इंतिहास-दर्शन अन्वेषण, विश्लेषण के विवेकपूर्ण ऊहापोह से युक्त हैं, परिस्थिति और परिवेश से नियंत्रित है तथा उसकी गतिमानता को प्रकट करते है तो स्वना प्रक्रिया ठम मर्यादित ओर निशचय-बोधात्मक होगी । वह समग्रतया ब्राह्म होगी उसमे जीवन की गुणात्मक सधनत्ता होगी । रना की प्राथमिक जानकारी उसके स्पापना चन्दो हीहो जाती है, वह किस रूप में ढलेगी, कितनी दूरी तक बढ़ेगी और कह्टाँ रुकेगी ?--यह पुरी यात्रा स्थापना-स्रोतों की ताकत पर होती है । जीवन को अधिकाधिक रूपों में पूरी- ताकत के साथ पकड़ने वाले स्थापना स्रोत व्यक्तिमुखी और अन्तर्मुखी नहीं होते । ऐसी रववना के प्रेरक या. प्रेरणा-सोत प्रतिस्थापनामो के इन्द्वाद से लगातार मत्तिशील बसे रहते हैं और मानवजीवन की तरह रचना भी लगातार आये बढ़ती रहती है, अप्रिम दशाजों को प्रकट करती रहती है । लेकिन रववना का ऐसा चरित्र हरदालत में इतिहास बोध ओर ययार्थवादं के अन्तनियोजित्त विवेक से बनता है । रचना प्रक्रियाः के तीन क्षणो कौ अवधारणा में मुक्तिबोध इसी तथ्य को स्पष्ट करते हैं । मुक्तिबोध थी रचना के अर्थ संश्लेषण में, उसकी जैविक-चेतना सम्पन्न पुर्णता में इतिहास-विवेक और यथार्थवाद को आवश्यक मानते हैं । वे मानते हैं कि संवेदना से ज्ञानत्मक पहलुओं का निर्माण इतिहास बोघ भौर यथार्थवादसे ही होता है । रचना-संवेदन में प्रामाणिक कोटि की विश्वसनीयता के आघार जीवन सापेक्ष होते है, कोरे तर्कवादी या जुद्धिबादी नहीं होते । मुक्तिबोध ने रचनाशास्त्र की तमाम “अनुभववादी” और “प्रत्यक्ष प्रमाणावादी'” मात्यतोओं को निरस्त किया है । वे मानते हैं कि रचना में मानव-चेतना का रूपायन जैविक संघटना के ऐसिहासिक चिययों के असुरूप होता है । रचना के जैविक-विधात को शरीर-विज्ञान के प्रारिशाख्रीय नियमों से नहीं परखा जा सकता, क्योंकि रचना-चेतना प्रकृतमावों और मनोगत-तरंगों का पर्याय नहीं होती । रचना-चेतना अपने युग तक के भौतिक विकास में मानवीय सारतत्व की सभावनाएुर्ण अभिव्यक्ति होती है । यहाँ डाधिन और फ्ायड' के जैविक तथा सनो- विश्लेष्णात्मक़ संज्ञानों का कोई सहत्व नहीं होता । शब्द-संरचना से लेकर अर्थं की उत्कर्ष विधायक बहु्भगी प्रसरणशीलता तक चेतना के भौतिक परिषेशमत उत्थान पतन का निश्चित योगदान होता है । शब्द और अर्थ के सम्बन्धों में भी इतिहास सत्व ही अनिवार्य रूप से निर्णायक होता है । इंतिहास में ही शब्दों के जीवन की लचक और कठोरता का सायं बनता हैं, शब्द नये अर्थ को पैदा करके अपने प्रचलित जर्थ से विरत मी ही जाते हैं, अथ-परिवर्तन की प्रक्रिया निरन्तर बनी रहती है और अर्थ की लयात्मक निःसति में मानवीय सम्बन्ध व्यंजित होते हैं । इस तरह शब्द के, अर्थ के विकास में ऐतिहासिक भौतिकृवाद के नियम क्रियाशील रहते है । संस्कृत, प्राकंत, अप- भेल लौः फिर अभ्रिं देशज्‌ और बाँचलिक बोलियों-भाषायों के सम्मितम्‌ से चस




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