रचना का इतिहास - दर्शन | Rachana Ka Itihas Darshan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
122
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ॰ राजेश्वर सक्सेना - Dr. Rajeshvar Saksena
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१८ |] [ रचना का इंतिहास-दर्शन
अन्वेषण, विश्लेषण के विवेकपूर्ण ऊहापोह से युक्त हैं, परिस्थिति और परिवेश से
नियंत्रित है तथा उसकी गतिमानता को प्रकट करते है तो स्वना प्रक्रिया ठम मर्यादित
ओर निशचय-बोधात्मक होगी । वह समग्रतया ब्राह्म होगी उसमे जीवन की गुणात्मक
सधनत्ता होगी । रना की प्राथमिक जानकारी उसके स्पापना चन्दो हीहो
जाती है, वह किस रूप में ढलेगी, कितनी दूरी तक बढ़ेगी और कह्टाँ रुकेगी ?--यह
पुरी यात्रा स्थापना-स्रोतों की ताकत पर होती है । जीवन को अधिकाधिक रूपों में पूरी-
ताकत के साथ पकड़ने वाले स्थापना स्रोत व्यक्तिमुखी और अन्तर्मुखी नहीं होते । ऐसी
रववना के प्रेरक या. प्रेरणा-सोत प्रतिस्थापनामो के इन्द्वाद से लगातार मत्तिशील बसे
रहते हैं और मानवजीवन की तरह रचना भी लगातार आये बढ़ती रहती है, अप्रिम
दशाजों को प्रकट करती रहती है । लेकिन रववना का ऐसा चरित्र हरदालत में इतिहास
बोध ओर ययार्थवादं के अन्तनियोजित्त विवेक से बनता है ।
रचना प्रक्रियाः के तीन क्षणो कौ अवधारणा में मुक्तिबोध इसी तथ्य को
स्पष्ट करते हैं । मुक्तिबोध थी रचना के अर्थ संश्लेषण में, उसकी जैविक-चेतना सम्पन्न
पुर्णता में इतिहास-विवेक और यथार्थवाद को आवश्यक मानते हैं । वे मानते हैं कि
संवेदना से ज्ञानत्मक पहलुओं का निर्माण इतिहास बोघ भौर यथार्थवादसे ही
होता है । रचना-संवेदन में प्रामाणिक कोटि की विश्वसनीयता के आघार जीवन
सापेक्ष होते है, कोरे तर्कवादी या जुद्धिबादी नहीं होते । मुक्तिबोध ने रचनाशास्त्र की
तमाम “अनुभववादी” और “प्रत्यक्ष प्रमाणावादी'” मात्यतोओं को निरस्त किया है ।
वे मानते हैं कि रचना में मानव-चेतना का रूपायन जैविक संघटना के ऐसिहासिक
चिययों के असुरूप होता है ।
रचना के जैविक-विधात को शरीर-विज्ञान के प्रारिशाख्रीय नियमों से नहीं
परखा जा सकता, क्योंकि रचना-चेतना प्रकृतमावों और मनोगत-तरंगों का पर्याय नहीं
होती । रचना-चेतना अपने युग तक के भौतिक विकास में मानवीय सारतत्व की
सभावनाएुर्ण अभिव्यक्ति होती है । यहाँ डाधिन और फ्ायड' के जैविक तथा सनो-
विश्लेष्णात्मक़ संज्ञानों का कोई सहत्व नहीं होता । शब्द-संरचना से लेकर अर्थं की
उत्कर्ष विधायक बहु्भगी प्रसरणशीलता तक चेतना के भौतिक परिषेशमत उत्थान
पतन का निश्चित योगदान होता है । शब्द और अर्थ के सम्बन्धों में भी इतिहास सत्व
ही अनिवार्य रूप से निर्णायक होता है । इंतिहास में ही शब्दों के जीवन की लचक
और कठोरता का सायं बनता हैं, शब्द नये अर्थ को पैदा करके अपने प्रचलित जर्थ से
विरत मी ही जाते हैं, अथ-परिवर्तन की प्रक्रिया निरन्तर बनी रहती है और अर्थ की
लयात्मक निःसति में मानवीय सम्बन्ध व्यंजित होते हैं । इस तरह शब्द के, अर्थ के
विकास में ऐतिहासिक भौतिकृवाद के नियम क्रियाशील रहते है । संस्कृत, प्राकंत, अप-
भेल लौः फिर अभ्रिं देशज् और बाँचलिक बोलियों-भाषायों के सम्मितम् से चस
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