रामानुज के विशिष्टद्वेत में भक्ति का सम्प्रत्यय | Ramanuj Ke Vishishtadvet Men Bhakti Ka Sampratyay

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Ramanuj Ke Vishishtadvet Men Bhakti Ka Sampratyay by रामेन्द्र सिंह - Ramendra Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सनातनीवर्ग मान्यता नही दे रहा था। आलवार सतो के गीत यद्यपि भक्ति रसामृत प्रवण थे, तथापि समाज का उच्चवर्ग उनसे अपना तादात्म्य स्थापित नही कर पा रहा था | ज्ञान-सिद्धात के नीरस दर्शन से प्राकृत जन आतकित था और कुछ-कुछ किकर्त्तव्यविमूढ भी । ऐसे विश्रेंखलित समाज मे एकरसता का वातावरण उत्पन्न करने का कार्य युग-पुरूष रामानुज के कन्धो पर आ पडा। रामानुज ने इस गुरूतर दायित्व का निर्वाह भी बडी ही सूझबूझ एव कुशलता के साथ किया | समाज के बुद्धिजीवी एव अभिजात वर्ग के लिये उन्होने “भक्तियोगः जैसे मध्यममार्ग का प्रतिपादन किया, जिससे न केवल बौद्धिक जनो की ज्ञान पिपासा की तृप्ति हो सके, अपितु लोगो की धार्मिक भावनाओ, मान्यताओ की भी तुष्टि हो सके । दूसरे शब्दो मे, जिसे बुद्धि समञ्च सके व हृदय अपना सके । साथ ही, उन्होने भक्ति के ही अगभूत 'शरणागति' का प्रतिपादन करके, समाज मे महिलाओ व श्रो के वर्गं के अहम्‌ की तुष्टि की, जिसे न तो वेदो के पावन ज्ञान का अधिकार था, न ही सासारिक जगत्‌ के वात्याचक्र मे फसे होने के कारण ज्ञान, भक्ति या कर्म किसी भी साधन द्वारा ईश्वर-प्राप्ति का अवकाश था | रामानुज के परवर्ती-काल मे 14 वी 15 वी शती मे 'रामावत-सम्प्रदाय' के अतर्गत कबीर, तुलसी आदि ने भक्ति तत्व की महिमा का पर्याप्त सवर्धन किया एव वस्तुत भक्तिः भारतीय जनमानस मे पञ्वम-पुरूषार्थ' के रूप मे स्थापित हो गयी | आचार्य तुलसी ने तो रामचरितमानस जेसा भक्ति-सरोवर' बनाकर, युगो से पड्कपूरित जनो को उसमे अवगाहन करा, निर्मल कर दिया | उधर कबीर ने सिद्ध कर दिया कि भक्ति का मार्ग भी मुँह का कौर! नही, वरन्‌ धेर्य एव समर्पण की पराकाष्ठा है - कबीर कठिनाई खरी, सुमिरतों हरि नाम | सूली ऊपरि नट विद्या, गिरे त नाही ठाम | / इसी तरह गोस्वामी तुलसीदास ने भी पर्याप्त लगन एव धैर्य के साथ साधने पर ही वास्तविक भक्ति के सिद्ध होने के बात कही हे - [58]




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