भरतोध्दारिणी | Bharatoddharini

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Bharatoddharini by सहादुररम - SahaadurRam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११) इदं प्रथमे दिव्य षष्टी सूय्य छोकादिक तथा। पाता वायु अग्नि जर आकाश पृथिवी सर्वथा ॥ चन्द्रादि अ्रहद तारे नक्षत्रादिक जहां तक देखते। चुद्दादि मंगल ग्रह तथा आधार-पृथ्वी छेखते ॥४०॥ निज शक्ति रूपी चीज से प्रभु! सुष्टि अंडेका किये। रयि कान्तिवत; उस पिन्ड में, बखि-वर्ष तब खन्डन किये ॥ स्वर्णादि भूतल, तल सुतल सव भंड के दी मध्य में | वितलादि अह पातारु जग, उत्पन किये तेहि मध्य मे ॥४१॥ स्वगोदि लोकों को रवे उस अन्ड के .मपरांश में । पृथ्वी तथा पाताल की रचना किये दोपांश में ॥ क्षितिजादि अख आकाश की सी मह मध्यांश में सागर ससुद्रादिक रचे, प्रभु ! ष्टि के निम्नांश में ॥४२॥ यह चन्द्रमा मन से तथा रवि तेज से उत्पन हुआ । भ्राण-वत-लामर्थं से यह पवन का वितरण हुआ | सुख से प्रगट अग्नी तथां सामथं से संसोर यह । सवख का विशु | मूल दैः वहि ईश ! जो भरमार यहं ॥४१॥ गोस्वामी सृष्टि । निज शक्ति कपी वीज से विधि विष्णु को, पेदा कियै। श्त खष्टि कै सम्बध की सामग्रियां साग्रह दिये |




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