प्रेम वैराग्यादि वाटिका | prem veragyaadi vatika

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prem veragyaadi vatika  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1 प्रेम ( भक्ति ) & विधाम लेता हैन, लगता क्या तुके अच्छा यद्ी। क्या चित्तमें है ? कर रहा क्या ? सम्म आता नदीं ॥ आभा दमकती है तिदारी जगतकी सव वस्तुर्मे । वैश्रगर होते हो नहीं हूं तड़फड़ाता अस्तु मैं ॥२६॥ भौरे करें शुज्ञार कोयछ छकुहुंकती है डार पै। पक्षी करें कछ-गान कुखुमित क्यारियां सरकार पे ॥ आशा लगाये मिलनकी है त्रिविघ वायू चल `रदी 1 रतरि-चन्द्र भी है खोजें ' नदियां विचारी वह रदी ॥र्शा उस ॒विरहकी दै आग वडवानल जरधिके पेरमें । गम्भीरतासे तन जलाता है तिहारी मेंटमें ॥ गिरि-घक्ष भी तप कर रहे सब मौन-घारी हो खड़े । है शीत-वर्पा-उष्ण-वाय्‌ स्वेदा खाकर झड़े 11२८॥' ये प्रेम-मद्‌ माते सभी हणे छली तेरे दिये । आँखें पसारे हैं सभी तब द्रश अग्छतके लिये ॥ अपनी न्यथा किखसे कटं, सवही विचारे दीन है । चिर काटसे आश्वा किये पद्‌-कमटर्भे ख्वरीन है ॥८६।॥ ऐखे पुजारी है जगतमें जव वुम्हारे े भमो! गिनती हमारी कव करोगे प्रेमियों रे विभो! क इन सर्योपर च्या कभी होगी तुम्हारी दृष्टि भी ? - अब क्या नहीं होगी कभी इनपे द्यान्छी इष्टि भी १३०}




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