शृंगार परिशीलन | Shringar Parishilan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
67.29 MB
कुल पष्ठ :
317
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कौम पुरुषा्थे एवं जीवन में उसका महत्त्व ट् भी धर्म अर्थ तथा मोक्ष के भी काम का ही विषय अयवा विकार कहा है । कामसूत्र की जय- मज्ूला टीक्म के प्रारम्भ में मज्जलाचरण रूप में यशोधर ने धर्मार्थकाममोक्ष रूप वाले काम को नमोवचन कहा है । इससे यह निष्कर्ष निकला कि धर्माचरण अर्थोपार्जन कामसेवन तथा मुमुक्षा के मुल में क्रमशः धर्म कामता अथेकामता कामकामता तथा मोक्षकामता ही रहती है--अर्थात् धर्माथकाममोक्ष चारों काममुलक ही हैं । अतएव महाभारत में एक स्थान पर काम ने धर्में अथ॑ काम की अवहेलना कर मोक्ष की कामना से प्रयत्न करने वाले व्यक्ति की मुधा चेष्टा का बड़ा उपहास किया है क्योंकि तीन न सही चौथी मोक्ष-रति तो उसमें है ही फिर कामहनन कैसे हुआ । शान्ति पर्व में तो धर्म तथा अथ से काम की श्रेष्ठता बताते हुए कहा गया है कि जैसे पेड़ में पुष्प एवं फल उसके काष्ठ से श्रेष्ठ होते हैं वैसे ही काम- पुरुषार्थ धर्म अथं दोनों से श्रेष्ठ है तथा उन दोनों में भी व्याप्त रहता है । अतएव गीता में मोक्षप्रवणता को आत्मरति अथवा आत्मकाम नाम ही दिया गया है जिसके होने पर फिर कोई कार्यास्तर शेष नहीं रहता । उसे परम काम अथवा परम रति संज्ञा दी गयी है । जैसे भय स्त्री से संपरिष्वक्त होकर पुरुष को आनत्दातिरेक में न कुछ बाहर का ज्ञान रहता है न भीतर का उसी प्रकार पुरुष को प्राज्ञ आत्मस्वरूप से सम्परिष्वक्त होने पर फिर न कुछ अन्य बाह्य ज्ञान रहता है न आश्यन्तर । वह उसका आप्तकाम अथवा अकाम स्वरूप होता है । अस्तु तो इससे यह सिद्ध होता है कि जो कुछ इस स्थावरज ज्ञमात्मक जगतू का आश्यन्तर या बाह्य ऐहिक या आमुष्मिक कार्येजात है वह सब कामसूलक ही है । यह तो भारतीय विचारधारा के अनुसार हुआ । पाशइ्चात्यों का तो कहना ही कया? वहां तो काम की प्रभविष्णुता प्राय निविवाद रूप से स्वीकृत हैं-- सभी विचार सभी भाव सभी हुषं जो प्राणी को स्पन्दित करते हैं प्रेम अथवा काम के सहायक रूप हैं और उसकी वन ज्वाला को उद्दीप्त किया करते हैं । १. धर्मकामोथकामश्च मोक्षकामस्तथैव च । स्तीपुसयोस्तु संयोगों यः काम सतुसंस्मृत ॥। --ना० शा० २४1६१ २. नमो धर्मार्थकामेम्यस्तत्कामेम्यों नमोनम । व्िवगंमोक्षकामेभ्योध्कामेम्यस्त्वसितं नमः ॥। ३. यो मां प्रयततेहन्तूं मोक्षमास्थायपण्डित 1। तस्यमोक्षरतिस्थस्य नृत्यामिच हसामि च ॥ --म० भा ० आश्व० प० १८-१ . ४. श्रेय पुष्पफलं काप्ठात् कामोधर्माथियोर्व र । कामोधमर्थियोयोॉनि कामश्चाथ तदात्मक ॥ ४. यथा प्रिययास्त्तिया सम्परिष्वक्तों न बाह्य किचन वेदनान्तरमेवायं पुरुष प्राज्ञ नात्मना सम्परिष्वक्तो न बाह्य किचन वेदनान्तरं तदा अस्वैतदात्मकाममात्मकाममकामं रूपमू 5 बु० उन ४३1२१ दे. 1 फ्रा०एडड हो1 फ3550ा5 मी उडोडा105 ं पीटर अघा धपिं.. प्रा्णाधी रिछाएाठ &ै1| का6. 00 पल 0. 1096 00 ध्धि० 105. 5206 2&005.-00ण6ा706
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