जैन निबंध रत्नावली | Jain Nibandh Ratnavali

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Jain Nibandh Ratnavali by रतनलाल कटारिया - Ratanlal Kataria

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्म-निवेद्न [वान्पदन द्विविधेऽपि तपोविधो । अज्ञानप्रतिपक्षस्वात्‌ स्वाध्यायः परमं तपः ६९] सगं १ दरिवशपुराण ( अर्थं -- बाह्य ओर श्राभ्यतर्‌ दो प्रकार के तय मे अज्ञान का विरोधी होने से स्वाव्याय ही उत्कृष्ट तप हैं । ) निरस्तसवोझकपायबृत्तिरवि धीयते येल झरीरिविगंः (रढनन्यदुरसोपपपाम्ानयायतोऽन्योऽनत ततो न योगः 11८७ --अमितगतिश्रावकाचार, परिच्छैद १३। ( अर्य जिससे प्राणी समरत इन्द्रिय विषय और कपाय की प्रवत्ति पर विजय प्राप्त करता हैं भर जो जन्मसतति के अकुर की शुष्क करने में सूर्य के समान हूँ है एसे स्वाध्याय से वढकर दसरा कोई योग नही हँ कोई योग नही है । ) ग्रह प्रस्तुत ( विद्रदुभोग्य] 'निबन्धरत्नावली' भी वर्षों के. निरन्तर स्वाघ्यायका ही विशिष्ट फल है । इसमें कुल ५० निवन्ध हं जिनमे दो नये लिखे गये हू वाकी सब पहले जैनपत्रो में प्रकाशित हुए है। कौन निबंध कव किस पत्र मे प्रकाशित हुआ है यह निवध सूची मे प्रदकशित किया गया है । पूर्व प्रकाशित इन निवधो मे आवद्यक सशोवन ओर परिवर्द्धनादि किया गया हैं । इस तरह इनको काफी . परिषत्‌ कयु-अ्रनतपरियृनूहुल बनाया गया है । इनमें अनेक निवध परस्पर सबद्ध हू अत विनं पोते प्रार्थना हें कि उनको कही कोई सकास्यद स्थर प्रतीत हो तो पहले धैर्यपूर्वक समग्र




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