श्रीरामकृषणवाचनामृत | 1446 Shriramkrishanvachnamrat Vol-2 (1947)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ भणि के भरति उपदे ११ मुदे सदा ही भय ठगा रहता था कि कहीं एेसा न हो ऊपरवले कटि से (ई्वर से) मन विमुख हो जाय। तिस्र पर एक आदमी सदा ही हाथ में त्रिशूल छिये मेरे पास वेग रहता था। उसने इरवाया, कहा, नीचैवारा 4 कोरा उपरवा करि से इधर उथर का नही $ यही तरिद्यू भोक दंगा। “वात यह है कि कामिनी-कांचन का त्याग हुए बिना कुछ होने ' का नहीं। मैने तीन त्याग किये थे-जमीन, जोरू ओर रुपया। भगवान रघुवीर के नाम की ज़मीन रजिष्टी कराने के लिए म॒मे उस देशम ( कामारपुकूर में ) जाना पड़ा था। मुझसे दस्तख़त करने के लिए कहा गया। मैंने दस्तख़त नहीं किये। मुझे यह ख्याल था ही नहीं कि यह मेरी ज़मीन है। रजिष्टी आफिसवालों ने केशव सेन का गुरु समझकर मेरा खुब आदर किया था। आम ला दिये, परन्तु घर े जाने का अख्तियार था ही नहीं, क्योंकि सन्यासी को संचय नही करना चाहिए। “त्याग के बिना कोई केसे उन्हें पा सकता है? अगर एक वस्त के ऊपर दूसरी वस्तु रखी हो, तो पहली वस्तु को विना हटाये दूसरी वस्तु कैसे मि सकती है! निष्काम होकर उन्हें पुकारना चाहिए। परन्तु सकाम भजन करते करते भी निष्काम भजन होता है। ध्रुव ने राज्य के छिए तपस्या की थी, परन्तु उन्होने इश्वर को प्राप्त किया था। उन्होंने कहा था, अगर कोई कॉच के ठिए आकर कांचन पा जाय ता उसे क्यों छोड़े ? दया-दान आदि और श्रीरामकृप्ण। श्री चैतन्य देव का दान । ^ सत्वगुण के पाने पर मनुष्य ईश्वर को पाता है। संसारी मनुष्यों के दानादि कर्मं प्रायः सकाम ही होते हैं। यह अच्छा नही। निष्काम कर्म करना ही अच्छा हे। परन्तु निष्काम भाव से करना है बढ़ा कठिन।




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