श्री माण्डूक्योपनिषद् | Shri Mandukyopanishad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
212
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)11
का भाग्य है इसका विवेचन हुये बिना विवैच्य प्रिपय पूर नदी
टता ।
इसलिये समष्टि मे स्थूल जगत ओर उराप्न यभिमार्मि चतन
विराट कहलाता है और व्यप्टि में स्थूल जगत का भोक्ता काञाय-
तन स्थूल शरीर तथा उसका अभिमानी चेतन वैश्वानर कहलाता
दै। विर्व भी इसे कहते है । बाहर की ओर वुद्धि स्थूल विपयाभि-
मुख होती है तथा इसवे सप्त भ्रंग होते है- (1) मूर्धा-मृतेजा (2)
चक्षु-विदवस्प (3) प्राणः--पृथम्ब-त्मत्मा (4) सन्देटो-वहुल
(5) वस्ति-रयि (6) पृथ्वी-पाद (7) आद्वानीय अग्नि-गुल । वही-
कही इन्हीं को यों कहा गया है-- (1) मूर्वा-दिव्यलोक (2) चक्षु-
मूर्यं (3) प्राण-वायु (4) मन-चन्द्रमा (5) उपस्थित्धिय-जल
(6) पृथ्वी-पाद (7) मुख-भग्नि ।
उन्नीस मुख टै-5 ज्ञानेन्द्रिय +-5 कर्मेन्द्रिय +5 प्राण +अन्त-
करण चतुष्टय रूप मुख है । स्थूल पदार्थो का मुख्य भोग है। क्यो
कि दीसने वाले स्थूल पदार्थों को ही सब कुछ समझकर इन्ही में यह
'रमण करता रहता है । यह आत्मा का प्रथम पाद है।
थोड़ा सा यह और समझते चले दुनियाँ की यात्रा वाहर की शोर
और अध्यात्मिक यात्रा अन्दर की ओर होती है। अभी तो अध्या-
त्मिक यात्रा का प्रारम्भ किया जा रहा है याना फ्रे लिए अभी आप
जहाँ है वही से यात्रा प्रारम्भ होगी । जहाँ आपको अपने होने का
विश्वास है, जहाँ आप अपना जीवन जी रहे है और जिन पदार्थों मे
आपका जीवन चल रहा है तथा जो आपके जीवने कौ धावद्यकता
है वह सब आपकी यात्रा प्रारम्भ करने का स्थान प्रथम पाद है अब
इससे अन्दर की और दूसरा पाद है इसका विवेचन किया जाता हे -
स्वप्न स्थानोऽन्तः प्रज्ञः सप्ताद्ध एकोर्नाविशति मुख प्रविविक्त
भुग्तेजसो द्वितीय पादः ॥4॥
स्वप्न स्थान तथा घुद्धि की आन्तरिक आमुसता उक्त सात अंग
उन्नीस मुख सूक्ष्म भोग तेजस नाम वाला आत्मा का हिताय पाद है ।
एस षाद की अनुश्रूति तगभग सभी शरारधारियों को होती है ।
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