जैन दर्शन की रूपरेखा | Jain Darshan Ki Ruparekha

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Jain Darshan Ki Ruparekha  by एस॰ गोपालन - S. Gopalan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क्या जैन धर्म बौद्ध धमं कौ एक शाला है? , 9 है, इसलिए कभी-कभी कहा जाता है कि जनों ने बौद्धों का अनुकरण फिशा है । परन्तु थोड़ा विचार करने से लगता है कि ऐसा संधव नहीं था। जैनों के कालचक्. मेः उत्सर्पिणी और अवसपिणी के छह-छह आरे हैं। इस कालचक को बोड़ों के उस काल-विभाजन से प्राप्त करना असंभव है जिसमे चार महाकल्प भौर अस्सी रषूकल्प माने गये हैं । बौद्धों ने अपना यहू कालचक्र श्राह्मणी हिन्दू धर्म के युगों एवं कल्पो के आधार पर बनाया होगा । जैनों पर श्रह्धा के अहोरात्र तथा मन्वन्तर के हिन्दू आख्पानों का प्रभाव पड़ा होगा । जो भी हो, जैन कालवक्त बौद्धों से प्रभावित नहीं जान पड़ता । दोनों ही सम्प्रदाय अपने कुछ विचारों के लिए हिन्दू धर्म के ऋणी हैं, इस बात से पूर्णत: इनकार नहीं किया जा सकता । उदाहरण के लिए, बौधायम धर्मपुत्र मे दिये गये पंच्रत है : अहिसा, सूनृता, अस्तेय, ब्रह्मचयं भौर परिग्रह । इनमें से प्रथम चार व्रत वही हँ जिनका कि जैन साधुओं को पालन करना पड़ता है और इनका क्रम भी उसी प्रकार है। बौद्ध भिक्षुओं को भी इन्हीं शीलों का पालन करना पढ़ता है, परन्तु उनकी सूची में दूसरे स्थान पर सत्य नहीं है । मैक्स मूलर, बुलर तथा केने ने इन तीनों महान धर्मों के साहित्य में उपलब्ध संन्यासियों के कर्तव्यों की तुरुनार्मक छानबीन की है, और वे भी इसी परिणाम पर पहुंचे हैं । ' हिन्दुओं के संन्यास-ध्स अथवा उनके संन्यासियों के कतंव्य और बौद्ध तथा जैन भिक्षुओं के लिए निर्धारित ब्रतों में जो अद्भुत समानता है, उससे यही. परिं- णाम निकलता है कि भिक्षु संघ के लिए नियम बनाते समय जैनों ने बौद्धों का अनुकरण नहीं किया है। एक तरफ हम हिन्दू संन्यास-धर्म तथा जैन सम्प्रदाय के नियमों में समानता देखते हैं, तो दूसरी तरफ हिन्दू संन्या सियों तथा बौद्ध भिक्षुओं के लिए निर्धारित नियमों में कु अंतर भी देखते है । इन सबूतो से हमारी इस मान्यता को समर्थन मिलता है कि जैव सम्प्रदाय मात्र बौद्ध सम्प्रदाय की एक शाखा नहीं था । यहां हम हिन्दुओं के संन्यास-धर्म तथा जैन सम्प्रदाय के बीच की कुछ अदृभुत समानताओं का उल्लेख करेंगे । चूंकि हिन्दू परम्परा की प्राचीनता निविवाद है, और बुद्ध अपने सम्प्रदाय के संस्थापक एवं महावीर के समकालीन थे, और चूंकि महावीर अपने सम्प्रदाय के केवल एक सुधारक थे, इसलिए विद्वान इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि यदि हमें 'ऋण' की ही चर्चा करनी है, तो संभव यही है कि जैन सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय का ऋणी न होकर ये दोनो ही सम्प्रदाय हिन्दू धर्म के ऋणी हैं । संन्यासियों के लिए निर्धारित कुछ नियम नीचे दिये जा रहे हैं: ' संन्यासी को अपने पास कुछ भी एकत्र नहीं करना चाहिए ।' “7 जैन तंथा 17. 'सौतम' : 11.11; दुलनीय-'बौधावन' : 11, 6, 11, 16




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