यौवन के द्वार पर | Yauvan Ke Dwar Par

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Yauvan Ke Dwar Par  by देवराज - Devraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० यौवन के द्वार पर न दिखाए तब तक तो कोई चीज सुन्दर होने से रही । चांद भी तब तक सुन्दर नहीं था जव तक कवि ने उसे निहारा नहीं । ये तारे जो चमचमाये उसी कवि की आंख की चमक लेकर । तब चलिए कालिदास के पास इस संकटकालीन स्थिति में वे अवश्य सहायक सिद्ध होंगे । रघ यौवन के प्रवेश-द्वार पर खड़े हैं । कालिदास कहते हैं : महोक्षतां वत्सतरः स्पृशन्निव द्विपेन्द्रभावं कलभ: श्रयस्तिव । रघ: क्रमाद यौवन-शिन्न शेशवः पुपोष गांभीयसनोहरं बपुः ॥ बस यही यौवन-भिन्न शैशव गांभीय मनोहर वपु की कल्पना कीजिए, एतना ही ध्यान रखिए कि यह सूर्ति पुरुष की नहीं, नारी की है । बस यही सुति उस देवों की होगी जिसके वर्णन के लिए मुझे कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिल रहो है । मनो वैज्ञानिकों ने आजकल एक शब्द का बड़ा प्रचार किया है, विचिले अर्थवत्ता से उसे समन्वित कर दिया है । वह शब्द है यौवन प्राप्त (^^५०।५४८्ला॥) कया यह कटू किं वह देवी ऐसी लड़की थी जो यौवन-प्राप्त अवस्था (60150 &7॥0 रिथांए ते) से गुजर रही थी ? आज जब उस अनवद्याज़्ी तनुमध्या, सुबसना, सर्वाभरण- भूषिता, नीलोत्पलसमगन्धा रमणी को स्मृत्ति-पटल पर लाता हूं तो मेरी कल्पना के पद थक जाते हैं । और डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास “चारुचन्द्रलेख' का वह प्रसंग याद आ जाता है, जहां पर नागनाथ ने चन्द्रलेखा के स्त्री-शरीर के महत्व पर प्रकाश डाला था । “प्रकृति के जड़ तत्वों का जितना सुन्दर और सामंजस्य पूर्ण संघात मानवदेह है उतना और कुछ भी नहीं है । सानव देह में भी किशोरावस्था का शरीर सर्वोत्तन है । उसमें सब कुछ विकसित भी हो गया होता है ओर क्षयोन्मुख भी नहीं होता । क्रम-वद्धमान किशोर मानव देह प्रकृति के जड़ तत्त्वों का सर्वोत्तम संघात है । इसको आश्रय करने वाला मन उदार होता है । कितु किशोर सानव देह में शी पुरुष देह की अपेक्षा स्त्री देह अधिक रहस्यमय, अधिक प्रभावशाली और अधिक औदाये-सम्पन्न होती है । देवी, स्त्री देह प्रकृति का साक्षात्‌ प्रतिनिधि है, वह्‌ विधाता की सिसृक्षा का मूतिमाने विग्रह वह जगत-प्रवाहु का मूल उत्स है ।” इसीलिए मेरा मन मुझ से यह प्रश्न करने के लिए मचल उठा है कि जिसकी आकृति, वणं, रेखा, कोमरुत्व के अपूर्वं सौंदर्य को देखकर मेरे अन्तर्तत्व की आनन्द-ग्रंथि खुलने लगती थी, मेरा मन पिघल कर जिसके अस्तित्व मं धिखीन हो जाना चाहता था, उसे केवर भोगेच्छा मात्र कह कर संतोष कर लिया जाय ओौर कालिदास की इस उक्ति को ञ्ुठका दिया जाय : यदुच्यते पावंति पापवृत्तये, न रूपमित्यव्यभिचारि तद्वचः । बाह्य सोदयं ओर आन्तरिक प्रवृत्तियों के मांगकछिकं सामंजस्य की जो विग्रहवती मूति मेरे सामने उपस्थित थी उसे भोग-पेरकता के लांछन से कभी दूषित नहीं




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