जैनधर्म का मौलिक इतिहास [भाग ३] [खंड १] | Jain Dharm Ka Maulik Itihas [Part 3] [Khand १]
श्रेणी : इतिहास / History, जैन धर्म / Jain Dharm
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
50 MB
कुल पष्ठ :
930
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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No Information available about गजसिंह प्रेमराजी - Gajsingh Premraji
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रकाशकीय
श्रमण भगवान् महावीर के शासन के कृपा प्रसाद से जैन धर्म का मौलिक
इतिहास ग्रन्थमाला के इस तीसरे भाग को सुविज्ञ एवं सहूदय पाठकों के कर-कमलों
मे प्रस्तुत करते हुए हमें परम सन्तोष एवं गौरव का प्रनुभव हौ रहा है ।
इतिहास का प्रथम भाग १६७१ मे और द्वितीय भाग १९७४ में प्रकाशित
हो चुके थे 1 इसे देखते हुए तृतीय भाग के लिए जिज्ञासु पाठकों को पयप्ति समय
तक प्रतीक्षा करनी पड़ी । इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं । इतिहास के दोनों भागों
का साहित्यिक जगत् मे आशातीत स्वागत हुमा, इससे निश्चय ही हमारा उत्साह
बढ़ा ।
इसी उत्साह से प्रेरित होकर तृतीय भाग के श्रालेखन का कायं बड़ी तत्परता
से प्रारम्भ कर दिया गया था । एतदर्थ सर्वप्रथम मथरा के संग्रहालय से एतद्विषयक
सामग्री संग्रहीत करने का प्रयास किया गया । वहां से यथेप्सित सामग्री. प्राप्त हुई,
जिसका महत्वपूर्ण उपयोग इस ग्रन्थ प्रणयन में किया गया ।
तदनन्तर राजस्थान प्रदेश के ही श्रनेकों ग्र्थागारों एवं ज्ञान भंडारों से
सामग्री एकत्रित की गई । इनमें सर्वाघिक महत्वपूर्ण सामग्री लब्घप्रतिष्ठ इतिहासज्ञ
पंस्यास श्री कल्याण विजयजी महाराज साहब कै जालोर नगरस्थ ज्ञान भंडार से
हमे प्राप्त हुई, जहां हमारे विद्वान् लेखक महोदय श्री राठौड़ ने स्वयं काफी समय
तक श्रहनिश अ्रथक परिश्रम करके उपयोगी एेतिहासिक सामग्री का श्रालेखनात्मक
संकलन किया । पं. श्री कल्याणविजयजी महाराज सा. का इस कायं में उन्हे हादिक
सहयोग एवं बहुमूल्य परामर्श भी मिला । महावीर की विशुद्ध मूल परम्परा के कति-
पय अज्ञात स्रोत संकेतात्मक लेखों के रूप में पं. श्री कल्याखविजयजी' म. सा. की
हस्तलिखित दैनन्दिनियों के संग्रह से उपलब्ध हुए ।
इस शोध काल में पंन्यासजी श्री के संग्रह में “तित्थोगालि पइन्तय” नामक
ग्रन्थ की एक अति प्राचीन हस्तलिखित प्रति मिली जिसके कतिपय स्थलों का सम्पा-
दन एवं कतिपय पाठों का संशोधन स्वयं श्री पंन्यासजी ने किया था । उस प्रति के
शेष सम्पादन एवं पाठ संशोघन का गुरुतर कार्य राठौड़जी के जिम्मे सौंपा गया ।
धामिक श्रौर ऐतिहासिक दोनों ृष्टियों से त्रति महत्वपूर्णं उस ग्रन्थ की गाथां के
संशोधन, पुनरालेखन, संस्कृत छाया, उनका हिन्दी श्रनुवाद पर उसके कतिपय
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