धर्म की उत्पत्ति और विकास | Dharma Ki Utpatti Aur Vikas

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Dharma Ki Utpatti Aur Vikas by ब्रह्मदत्त दीक्षित ललाम - Brahmadatt Dikshit Lalam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनन्त की धारणां रूप में है उस रूप में आने में उसे कितने उत्थान, पतन परिवर्तन देखने डे. दूसरे बात है। . ५ सवा! नदी की भाँति ही शब्दों के लिये यहू कहना बहुत कठिन है कि ठीक इस स्थान से उनका उद्गम हुमा । रोम निवासी स्यं रिलीजो शब्द के प्रारम्भिक अर्थ के सम्बन्ध मे सदिव ये । ्षिसरो ने, जिसे सब जानते हैं, इसे रिलेगरे से लिया जिसका अर्थ है फिर एकत्र होना, फिर विचार करना, मनन करना यह नेकलिगरे से विरुद्ध है जिसका अर्थं है उपेक्षा करना । टूमरो ने इसे रिलिगरे से लिया जिसका अर्थं है सम्बद्ध करना, पीछे हटाना । मेरी राय में सिसरो का शब्दार्थ और व्युपत्ति ठीक है किन्तु यदि रिलीजौ का प्रारम्भ मे अर्थं था एकाग्रता, भादर ओर श्रद्धा तो यह्‌ बिलकुल स्पष्ट है कि बहुत दिनो तक यह्‌ सरल अर्थं नही चला । धर्म का ऐतिहासिक पहलू यह्‌ खष्ट हो गया किं जव हम एेसे शब्दो का प्रयोग करते हैं जिनका अपना वडा इतिद्टास रहा है तव हम उनको न तो प्रारम्मिक श्न्दार्थ मे प्रयोग कर सकते हैं और न हम एक साथ ही उनको सब रूपों मे प्रयुक्त कर सक्ते हँ जो समय समय प्र प्रकट हुये हैं । उदाहरण के लिये यह कहना बिलकुल बेकार है कि धर्म का यह अर्थ था, यह नहीं था, या उसका अर्थ था विश्वास या पूजा था नैतिकता था । आनन्द-दर्शन ओर उसका अर्थ भय या आशा या अनुमान नहीं था या देवताओ की श्रद्धा नहीं था । धर्म का यह सब भर्थ हो सकता है, शायद किसी न किसी समय धर्म दाद इन सव अर्यो मे प्रयुक्त होता था । किन्तु यह कहने का अधिकार किसको है कि धर्म का अर्थ इनमे से एक हो है और एक ही और एक ही रहेगा, एक केवल एक जगनी लोगो में शायद धर्म के लिये कोई नाम ही न हो फिर भी जब पपुआ अपने करवार के सामने वेठता है, माथे के ऊपर अपने हाथ जोड़ना है अपने से पुछता है कि वह जो करने जा रहा है वह ठोक है या नही, तव उसके लिये धर्म यही है ! अनेक जगली जातियो मे जिनमे देव पुरुषों के ज्ञान का कोई आभास नही था, मिखनरी लोगो ने देला है कि मृत पुरुपो की आत्माओ की पूजा कौ जाती है, यहं धर्म के प्रारम्म का पहला आभास है । धर्म की अन्तिम लौ हमे वहाँ भी स्वीकार करनी चाहिये जहां आावुनिक दार्श- मिक ईश्वर आर देवताओ को तो व्यर्थ घोषित्त करता है किस्तु किसी प्रेम की मधुर स्मर्ति में नतत मस्तक होता है और अपना सर्वस्व मानवता की सेवा में लगाता है। जब पत्लिकन टूर रहकर, आकाश की गोर मपनी नजर भी नही उता किन्तु छाती पीट कर कहता है “मगवान मुझ पापी पर दया करो” । उसके लिये चह धर्म था | (1 की कि देवता सब में व्याप्त हैं और जब बुद्ध ने कहा कि कोई भी तब दोनों अपने घामिक विश्वास प्रकट कर रहें थे । जब युवा ब्राह्मण




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