विज्ञान | Vigyan
श्रेणी : विज्ञान / Science
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
36
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ शिवगोपाल मिश्र - Dr. Shiv Gopal Mishra
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अच्छी से अच्छी दवा हमने ढूँढ निकाली है लेकिन क्या
तपेदिक समाप्त हो गया ? नहीं। वह तो बढ़ रहा है।
क्या राबर्ट कख का सपना पूरा हुआ ? क्या वह स्वप्न
मृगतृष्णा बनकर नहीं रह गया |
इसी तरह 1929 मे एलेक्जंडर फलेमिग ने
पेनिसिलीन नाम के एन्टीबायोटिक की खोज सबसे
पहले की थी ओर उनकी यह खोज उनकी प्रयोगशाला
में कुछ बैक्टीरिया के कल्चर के समय हुई | बैक्टीरिया
के साथ साथ जीवाणु की एक और किस्म है- भुखड़ी
या फफफूँद । एक बार फ्लेमिंग ने देखा कि स्टेफाइलोकोकाई
बैक्टीरिया का उत्पादन कुछ स्थानों पर समाप्त हो गया
है क्योंकि वहाँ एक फफूँद उग आई है और वह फर्फूँद
थी पेनिसिलीन नोटैटम नामक फफूँद । उसे चिन्ता ही
नहीं आश्चर्य हुआ भी हुआ कि आखिर उस फफूँद ने
कर्योकर बैक्टीरिया का बढ़ना ही नहीं रोका, उसे पूरी
तरह से नष्ट भी कर दिया। फिर उसी फफद से पैदा
किया गया पेनिसिलीन जो लगमग 30 वर्षो तक
जीवाणुजनित रोगों में अचूक औषधि था।
शायद इस पत्रिका के पुराने पाठकों को याद
होगा कि जब असहयोग.आन्दोलन के जनक महात्मा
गधी की पत्नी कस्तूरबा गधी पूना जेल मेँ थीं तो इसी
पेनिसिलीन के इंजेक्शन दारा ही उनके रोग पर काबू
पाया गया । घड़ी से हर 6 घंटे पर सुई लगती थी और
उस समय उसकी एक सुई लगवाने की फीस थी 40
रुपये जो आज के हिसाब से 5000 रुपये होगी । धीरे
धीरे पेनिसिलीन का प्रमाव कम ही नहीं होता गया,
उससे मृत्यु तक होने लगी | अगर आज किसी डाक्टर
से पेनिसिलीन का इन्जेक्शन लगाने को कहेंगे तो वह
आपका मुँह देखने लगेगा क्योकि वह जानता है कि यह
अपने समय का रामबाण अब निष्प्रमावी ही नहीं, घातक
भी हो गया है।
एक फफूंद ने जीवित बैक्टीरिया को क्योंकर
और कैसे नष्ट किया था ? और यहीं से उत्पत्ति हुई
ऐसी दवाइयों की जो एक जीवित का ,उपयोग दूसरे
जीवित को नष्ट करने के काम आए अर्थात् ऐंटीबायोटिक
(ऐंटी- अर्थात् विरुद्ध, बायो- जीवित या जीवन्त तथा
मई 2002
इक्स- पदार्थ) | आज अनेक प्रकार के फफूँद या भुखड़ी
से नए नए ऐंटीबायोटिक बनाए जा रहे हैं। पर क्या हम
इनसे रोग पैदा करने वाले विषाणु या जीवाणु को रोक
सकेंगे ?
बेक्टीरिया एवं वाइरस तो रहेंगे ही, क्योंकि वे
भी सृष्टि या प्रकृति के अंग हैं। जब हम और आप अपने
वैज्ञानिकों के साथ मिलकर उन्हें नष्ट करने या मार
डालने का प्रयास करते हैं तो वे भी अपने बचाव के लिए
नए नए तरीके ईजाद कर लेते हैं और फिर हमारे
'वैज्ञानिक दूँढने लगते हैं इन नए परिवर्तित जीवाणुओं से
निपटने के लिए नए उपचार। कौन नहीं जानता कि
प्रा (पप) [प्णापणा९वृरली लला पाप) की खोज
पहली बार केवल 17 वर्ष पूर्व हुई थी । इन 17 वर्षों में
पाए नए नए प्रकारों में बैंटता जा रहा है। प्रा],
पाघ-2 और अब आ गया है पाए-31 तो क्या ये
अलग अलग वाइरस हैं ? या फिर वे ही अपना रूप,
आकार, क्षमता बढ़ाते घटाते जाते हैं। क्या केवल इतना
सही नहीं हैं कि आप जब उन्हें मारेंगे, नष्ट करने का
प्रयत्न करेंगे तो वे भी अपना स्वरूप बदल लेंगे ? हो
सकता है कि वे नए रूप में भी आ जाएं । शायद आपको
1997 का पागल गाय रोग (1120 (0 {0156856}
[(प्रलटलिता-1260 4156256 1729157111€त 701
८16] का पता होगा | गायों पर इसका हमला इसलिए
नहीं हुआ कि वह कहीं सुदूर से आ गया है बल्कि इस
तरह के जीवाणु सुप्त अवस्था में गायों में ही रहते हैं
और वे किसी प्रकार का कोई रोग उत्पन्न नहीं करते |
लेकिन जब आप शुद्ध शाकाहारी, घासफूस,
चारा, चूनी चोकर खाने वाली गाय को मांसाहारी बना
देंगे, जैसे इंग्लैण्ड में किया गया तो उनका बीमार होना
निश्चित था | इन दूध देने वाली गायों को उनके भोजन
में गोमांस के लिए काटी गई गायों का अवशेष, जो वहाँ
किसी काम में नहीं आ सकता था, खिलाया गया | (इस
देश मं इन्हीं जानवरों की हड्डियों से कैल्सियम की
गोली बनाई जाती है तथा रक्त से टॉनिक और हमारे
विद्वान चिकित्सकों द्वारा जानबूझकर कितने ही भारतीयों
के पेट में दूंस दी जाती है)। जब इन विलायती गायों
विंज्ञान . 14
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