जंबूसामिचरिउ | Jambusamichariu

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Jambusamichariu by डॉ॰ विमलप्रकाश जैन - Dr. Vimalprakash Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राककथन वीर कवि द्वारा रचित '“जंबूसामिचरिउ' विक्रमको ११वों झतीका एक महत्वपूण बपश्नंश चरित महाकाब्य है। इसका परिचय सर्वप्रथम पं० परमानन्दजोने अनेकान्तमें प्रकाशित किया था । लगभग सात वर्ष पूर्व पूज्य डा० हीरालाल जैनने इस ग्रंथके संपादनकी ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया था । उसी समय कारंजा जैन दास्त्रभंडारकी एक हस्तलिखित प्रति (क) तथा आामेर जैन शास्त्र भंडारकी हस्तलिखित प्रतिको फोटो प्रति (ख) ये दो प्रतियाँ भी मुझे उनसे उपलब्ध हुईं । इन दो प्रियोकि आधारपर संपादन कायं भारम करनेके भाद जंबुसामिवरिड की तीन ओर प्रतियाँ (ग घ छू) उपलब्ध हुईं । इनमें सबसे अधिक प्राचीन प्रति (ख) वि० सं० १५१६ की है। इन सब प्रतियोंका पूर्ण विवरण आगे 'संपादनपरिचय 'में दिया गया है । हस्तलिखित प्रतियोंको खोजके प्रयासोंमें “जबुसामिचरिउ की एक संस्कृत पंजिका (पं) भी उपलब्ध हुई, जो संक्षिप्त होनेपर भी महत्त्वपण हैं । अत: उस पंजिकाको अन्य प्रतियों (ख एवं ग) में उपलब्ध टिप्पणोंके साथ संपादन करके प्रस्तुत प्रंथके अंतमें दे दिया गया हैं । काव्यके मूलपाठ चयन एवं हिंदी अनु- वाद, दोनोंमें इन संस्कृत टिप्पणोंसे पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई है । मूल अपभ्र श प्रतिर्योको खोजके ही सिरसिलेमें जंबूस्वामीकथासे संबंधित शताधिक ऐसी रचनाओंकी जानकारी प्राप्त हुई जो विविध भारतीय माषानोमे भिन्न-मिन्न प्रदेशों व कालोंमें रची गयों । उनका संक्षिप्त विवरण आगे दिया गया है । प्रस्तुत संस्करणमें वीर कवि कृत अपश्च श 'जंबूसामिचरिउ को मूलानुगामी हिंदी अनुवादके साथ सुसंपादित रूपमें सबप्रथम प्रस्तुत किया गया है। समालोचनात्मक संपादनको परपराके अनुसार इष महाकान्यके प्रत्येक पहलूका विशेष अध्ययन करवे: उसके निष्कर्ष प्रस्तावनामें दिये गये हैं । ग्रंथका बिदाद दाब्द-कोष भी प्रबंधके अंतमें दिया गया है । जंबुस्वामीके जीवनचरितके संबंधमें आगमिक साहित्यसे लेकर संपण प्राकृत, अपन्न श एवं संस्कृत जेन साहित्यमें जो कुछ मो सामग्रो उपलब्ध है, उसका सुदमतासे अध्ययन कर प्रस्तावनामें जंबूस्वामी के जोवनचरितपर यथासंमव पणं विस्तारसे प्रकाश डाला गया है। “जंबुसामिचरिड' महाकाव्यके परिद्रेइयमें इस संपूर्णं सामग्रोके अध्ययनसे यह प्रमाणित होता है कि जंबस्वामी जैन श्रमण-परपरामें एक महत्त्वपुणं ऐतिहासिक पुरुष थे, जिन्होंने ई० पू० ५२७ मे भगवान्‌ महावीरके तोरथमें उनके साक्षात्‌ शिष्य आचारय सुधमपि जिन-दीक्षा स्वीकार की थी । अपनी अलौकिक प्रतिमा एवं कटोर तपःसाधनाके कारण वे जैन श्रमण संधके न केवल प्रधानाचार्य ही बने, बल्कि उन्होंने श्रमण-साधनाकी परंपरा और पुरातन आगमिक साहित्यिक संपत्तिकों सुरक्षित रखने, उसका प्रचार-प्रसार करने तथा चिरस्थायी बनानेमें भी अपना अभूत- पूवं एवं अद्वितीय योग-दान दिया । प्रदनोंके माध्यमसे जंबूस्वामीने सुधर्माचार्यसे सारे आगमोंको सुनकर घारण किया, थर जंबूस्वामीसे वह सारा ज्ञान उनकी शिष्प-संत्रतिकों प्राप्त हुआ और उनके द्वारा छागेको संततियोंको । इस प्रकार गुरु-शिष्य परंपराके द्वारा आगम स।हित्यकी स्थायी सुरक्ष। तथा प्रचार-प्रसार, ये दोनों ही कार्य सिद्ध हुए । आगमिक सादित्यमें जंबूस्व।मी के जीवन थरितके विषयमें उपलब्ध सामग्री अत्यल्प है । बादके जंबू- स्त्रामीकथा एवं चरित साहित्यते उनके जीवनपर कुछ विदयोष प्रकाश पढ़ता है। परंतु अबसे ढाई हजार वर्ष पूर्व ह्ोनेत्राछे इस मड्ापुरुषके वास्वविक औीवनर्चा(तकी सामग्री, इस कथाके परंपरागत होनेपर मी,




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