राजमाता | Rajmata

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Rajmata by श्री ओमप्रकाश भार्गव - Shree Omprakash Bhargav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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माह की दन थी । श्री मेथलीशरणा गुप्त की “भात भारती ' के उन्दो म वसी हुई दद् प्रेम की भावना लेवा को बहुत भगी लगी श्रोए हर्रे का “प्रियप्रवास' तो उसके इप्ट देव कृप्ण-रावा वी छवि ही को श्रकित करती थी । तुलसी की कवितावली के छन्द श्र रामायण की चौपाइया मे भरा राम भक्ति रस लेवा के भीन मन का सरावोर कर दनता था । शालेय व्यवस्था के क्रमोच्च सापानो कां पार करती हुई, श्रनति- कालमेही यहु र्पसी वाला एक प्राइवेट छात्रा के रूप में मास्टर साहब द्वारा ज्ञान अ्रजन कर मेटिक की परीक्षा में प्रविप्ट हुई श्र फिर थ्रा गई वह गुत्थी जिसे सुलभाना लेखा के लिये कठिन हा उठा । अपनी लाडली नवासी को बाहर कालेज की शिशा के हेतु भेजना स्नेहपूर्णा नानी को स्वीकार न था झऔर उधर लेखा का मन ज्ञानाजन करने आगे पटने, तथा होस्टल के वातावरण में हमजोनिया के साथ रहने अर हॉस्टल जीवन का स्वाद चने को श्राकुग था प्रीमावकान्न हये तौ तखा अपने पिता कंग उरड चनी इ, परीनाफय निक्ता तब लेखा नं जाना कि वह मफन हां ¶र है । उसके स्पक्म पारावार नरहा। पिना नं प्रसनता मे भर कर पुत्री वो वधाई दी । देण्ग ने आगे पटने वी अपनी जब श्राकाक्षा व्यवन की तो उन्होने कहा -- “मैं भी यही चाहता हू वटी कि तुम झ्रागे पढो श्रौर बी० ए० © तक शिक्षा प्राप्त करो किन्तु | “श्राप नानी की तरफं से चितितदहै? मूके पता है कि उनकी इच्छा नही हैं कि मै श्रव सागर से बाहर जाकर श्रध्ययन कर किन्तु मैं तो 1 “मुक्ते पता हूं लेखा ' कि रगे पढने की तुम्हारी बहुत इच्छा है किन्तु तुम्हारी नानी इससे बहुत नाराज हो जायेगी सोच लो + €




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