गीता-निबन्धावली | Geeta-Nibandhavali

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Geeta-Nibandhavali by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१५) षे अयन ! मुझ अधिष्ठाताके सकादासे यह मेरी मायाः चराचरसदित सर्वै जगत््को रचती है । इस हेतुसे ही यह संसार आवागमनरूप चक्रमे घूमता है । सातो महिं ओर उनसे भी पू द्यनेवाज चारो सनकादि तथा खायंुब आदि चौदह भनु मेरेमें भावबाले मेरे संकल्पसे उत्पन इए है, जिनकी संसारम यह सम्पूर्ण प्रजा है | है अर्जुन ! शरीररूप यन्त्र आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मेकि अनुसार रमाता हभ सव्र भूत प्राणियोंके हृदयमें स्थित है |” इसी तरह अ० ४ 1 १३ में “चातुर्व्ण्यके करती” अ० ५1२९, में 'सर्वछोकमहेश्वर” अ० ७। ६ में *सम्पूण जगत्‌के उत्पत्ति प्रल्य- रूप” ; अ० ११।३२ मं 'लोक-संहारम प्रवृत्त मदाकार' इत्यादि रूपोंसे वर्णन है । जीवात्माका भोक्ता, कर्ता, ज्ञाता, अदा, अविनाशी, नित्य आदि लक्ष्णोसे निरूपण किया गया है । जैसे-अध्याय २।१८ मे नित्य अविनास्ी अप्रमेय; अध्याय १३।२१मे म्रकृतिमें स्थित गुणक मोक्ता ओर गुर्णोके सेगसे अच्छी बुरी . योनियोंमें जन्म ऊेनेवाद्य अ० १५।७ मे सनातन अंश, अ० १५ । १६ “अक्षर कूटस्थ! आदि रक्षणो वर्णन है । इस प्रकार मीत अमेद-मेद दोर्नौ प्रकारके वर्णन पाये जाते हैं । एक ओर जहां अमेदकी बड़ी प्रशंसा है, वहां दूसरी




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