मकरन्द | Makrand
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
168
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( हर
इसो से विन्दुपात से योयी श्रत्यन्त दुखी होता है ।
कत गयां ववं कामिनौ भूरेः विद गर्याकू जोग)
जिस एक बूंद में नर-नारो पच मरतें हे उसी के द्वारा सिद्ध घ्रपनौ सिदि
साधते हे--
एक चूंद नरनारी रोधा । ताहि में सिघ साधिक सीधा 1!
जो चिन्दु रक्षा नहीं फरता, वहीं योग की दृष्टि में सब से नीच हूँ--
ज्ञान का छोटा; काछ का लोहा 1
इंद्री का लड़वड़ा, जिद्धा को फूहड़ा ।
गोरख कह ते पारितिस चूहडा 1
ध्रतएव योगो की दारोर श्रीर मन फो चंचलता के कारण नोचे उत्तरने-
बालें रेत को हमेशा ऊपर चढ़ाने का प्रयत्न -फरना चाहिए 1 योगी फो ऊर्ध्वरेता
होने की श्रविद्यकता ह । नाय-पंय मं उष्वरेता कौ बड़ी कठिन परोक्षा हं-
भगि मुखि विन्दु, श्रगिनि मुखि पारा । जो राख सो गुरू हमारा ॥।
वबजरि करता भ्रमरी राधे, श्रमरि करता नाई ।
मोग करंताजे व्यंद रांखे, ते गोरख का भाई ॥
प्रमृत के श्रास्वादन फे लिए योग ने फई युक्तियों का श्राविष्कार किया है ।
विपरीत-करणुी -मुद्दा, जालन्वर-दंघ, तालु-मूल मे जिह्वा पलटना, पटलिनी-
जागरण, सब इसी उद्देश्य से किये जते हुं परन्तु श्वास-क्ियि का, चिन्दु-
स्यापन श्रीर श्रमृतोपमोग में विलेप महत्व हं । मनघ्य फा जोवन, श्वास-क्रिया
रे अपर श्रवलंचित हं । जय तक सांस चलतो रहती हं तभी तक श्रादमी
लता है, प्राण रह्तेही तफ बह प्रएीहं। शवास्त-क्रिसा का चन्द होना
हमारे ऊपर फाल की सब से बड़ी मार है ।
चायू वंध्या सयल जग, वायू किनहूँ न वंघ 1
वाई विहूणा ढहि पढ़ें, जोर कोई न संघ ।
परन्तु यदि इवास-फ्रिया के थिना भी हम जीवित रह सकें सो फहना
चाहिए कि काल की मार का हमारे ऊपर कोई श्रसर नहीं हूं । इसी से योगी
प्रापा-चिजय को उदिष्ट कर प्राणायाम फरता हूँ । पूर्व प्राए-विजय केवल
मक के द्वारा सिद्ध होती हूँ । केवल कुंबक में इवास क्रिया एकदम रोक दी
~
जातौ ह । पुरक श्रौर रेचक को उतम श्रावश्यकता नहीं रहती । इससे प्रा
' मुपुस्ना में समा जाता है-भीर सुर्य चन्द्र का योग संभव हो जाता है 1. ,
प्राणायाम के हारा प्राएावायु मात्र नहीं; दकों चायू वश में श्रा_ जाते '
धन”
भ
प
कि
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