मकरन्द | Makrand

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Makrand by डॉ. बड़ध्वाल - Dr. Baddhwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( हर इसो से विन्दुपात से योयी श्रत्यन्त दुखी होता है । कत गयां ववं कामिनौ भूरेः विद गर्याकू जोग) जिस एक बूंद में नर-नारो पच मरतें हे उसी के द्वारा सिद्ध घ्रपनौ सिदि साधते हे-- एक चूंद नरनारी रोधा । ताहि में सिघ साधिक सीधा 1! जो चिन्दु रक्षा नहीं फरता, वहीं योग की दृष्टि में सब से नीच हूँ-- ज्ञान का छोटा; काछ का लोहा 1 इंद्री का लड़वड़ा, जिद्धा को फूहड़ा । गोरख कह ते पारितिस चूहडा 1 ध्रतएव योगो की दारोर श्रीर मन फो चंचलता के कारण नोचे उत्तरने- बालें रेत को हमेशा ऊपर चढ़ाने का प्रयत्न -फरना चाहिए 1 योगी फो ऊर्ध्वरेता होने की श्रविद्यकता ह । नाय-पंय मं उष्वरेता कौ बड़ी कठिन परोक्षा हं- भगि मुखि विन्दु, श्रगिनि मुखि पारा । जो राख सो गुरू हमारा ॥। वबजरि करता भ्रमरी राधे, श्रमरि करता नाई । मोग करंताजे व्यंद रांखे, ते गोरख का भाई ॥ प्रमृत के श्रास्वादन फे लिए योग ने फई युक्तियों का श्राविष्कार किया है । विपरीत-करणुी -मुद्दा, जालन्वर-दंघ, तालु-मूल मे जिह्वा पलटना, पटलिनी- जागरण, सब इसी उद्देश्य से किये जते हुं परन्तु श्वास-क्ियि का, चिन्दु- स्यापन श्रीर श्रमृतोपमोग में विलेप महत्व हं । मनघ्य फा जोवन, श्वास-क्रिया रे अपर श्रवलंचित हं । जय तक सांस चलतो रहती हं तभी तक श्रादमी लता है, प्राण रह्तेही तफ बह प्रएीहं। शवास्त-क्रिसा का चन्द होना हमारे ऊपर फाल की सब से बड़ी मार है । चायू वंध्या सयल जग, वायू किनहूँ न वंघ 1 वाई विहूणा ढहि पढ़ें, जोर कोई न संघ । परन्तु यदि इवास-फ्रिया के थिना भी हम जीवित रह सकें सो फहना चाहिए कि काल की मार का हमारे ऊपर कोई श्रसर नहीं हूं । इसी से योगी प्रापा-चिजय को उदिष्ट कर प्राणायाम फरता हूँ । पूर्व प्राए-विजय केवल मक के द्वारा सिद्ध होती हूँ । केवल कुंबक में इवास क्रिया एकदम रोक दी ~ जातौ ह । पुरक श्रौर रेचक को उतम श्रावश्यकता नहीं रहती । इससे प्रा ' मुपुस्ना में समा जाता है-भीर सुर्य चन्द्र का योग संभव हो जाता है 1. , प्राणायाम के हारा प्राएावायु मात्र नहीं; दकों चायू वश में श्रा_ जाते ' धन” भ प कि




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