पद्मनन्दि पंचविशतिका प्रवचन भाग - 1, 2 | Padmanandi Panchavishatika Pravachan Bhag - 1, 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छद २ ११ नही पैदा हरा, कहा कहा नही मरा? हेर जगह ग्रनःत वार उत्पन्न हुआझा, मरा । तो श्रपने प्रापके प्रति विचार वारें कि श्राज जो कुछ धन वैभव मिला है, इन्जत प्रतिष्ठा मिली है, परिवार समागम मिला है ये सब मरण होनेपर इस जीवके साय जायेगे कया ? श्रे थे कोई साथ न जायेंगे । श्रबसे पिछले भवोंमे इससे श्रनन्तगुना श्रधिकये सब चोज प्राप्त हुड, पर उनका श्राज कुछ श्रापके काम झ्राया है क्या? जो गुजर गया उससेसे कुछ भी तो हाथ नहीं है। ऐसे ही समभिये कि भ्राज जो कुछ समागम मिले है ये थी मरण होनेपर सब छूट जायेंगे, जीवके साथ कुछ भी चीज न जायगी । यहाँ कोई भी स्थान ऐसा नही जो जाने योग्य हो, बसने योग्य हो, श्रपनाने योग्य हो । इसलिए प्रभुने सब जगहका गमन त्याग दिया श्रौर एक श्रासनसे बिराजे हैं । मगवान शऋ्षभदेवकी नासागय्रदष्टि मुद्रासे प्राप्य शिक्षा--प्रभुकी यह मुद्रा हमको क्या शिक्षा दे रही है ? तो देखो प्रश्नुकी दृष्टि नासाग्र है । वे बाहर कही कुछ देख नहीं रहे । तो हमे उससे शिक्षा यह मिल रही कि जगतमें कुछ भी देखने योग्य नही है । लोग बेहतासा दोड़ लगाये भागे जा रहे है । श्रमुकं तुमायश है, श्रमुक सनीमारहै, श्रसुक थियेटर है, जाते, देखते, पर श्रंतमें उससे फायदा क्या मिलता है सो तो घिचार करो । सनीमा देखने वाला दो तीन घंटे तक टकटकी लेगयि देखत रहता दै, पर श्रन्तमे होता क्या है कि उसे श्राँखें सीचनो पडती है । रत श्रधिक हौ गर्‌ तो कुं उसके प्रति सोचेंगे, नींद न श्रायगी, कुछ विचार करेंगे उससे ्रन्तमे फायदा यया मिलताहैसोतो बताग्रो? कुछ भी तो फायदा नहीं मिलता 1 देखो इन विषयोमे सुख मानकर जितना सुख भोगा, वह्‌ सुख जोडकर प्रापकी गाँठमे है क्या प्राम ? गह्‌ जोडनेकी चोज नीह कि हम भ्रमर ९० वर्षोसे सुख भोगते श्रये तो यह्‌ जुड केर एफ सुखकफी निधि वन जायगी । निधि बनना तो दूर रहा, मगर सुख मिलनेके एवजमे दुःख प्रधिक गुना पिलनादहै। तवहीतो लोग कहते है कि संसारमें सुख तो राई बराबर है पनीर दुःख मेरूषमान है । जगतमे कोई भी वस्तु दर्शनीय नहीं है । प्रभुकी मुद्रा कया शिक्षा देती है ? उनकी जो नासाग्र दृष्टि है वह यह शिक्षा देती है कि किसी भी पदार्थकी श्रोर बया दृष्टि देना) श्रात्माकी वृत्तिका दिर्द्शन--ग्रच श्रन्दर्को दातपर ध्रोर ध्यान दे । जब प्रभुको कैवलक्षान हृश्रातोवे क्या जान रहै, किसीको जान रहे ? भ्रपने श्रापकों जान रहे । वह मुद्र ही सिख। रही है । यह तो श्रपने श्रापमे स्पते प्रापको जान रहे हैं श्रौर हम पाप प्रपनेमे पने भ्रापको जाते है या वाहुरकी चीलको जानते है ? ब्रपने भ्रापकी जात रह । योश्रणर




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