जैनधर्म सिद्धांत अर्थात धर्म के दश लक्षण | Jaindharma Siddhant Arthat Dharma Ke Dash Lakshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( & ) सीग नुपफ से शो लड़े सो तो बीर न दोप ६ मापा त मक्ति फरें दौर गड़ावे सोय ॥ प्री तौरा पानि गए मरे पच गनीमय सस नगषया पनी को साथी ची कष्टीप 1 जित भीयाजोध का पना इसने सीसयदरदनि कीः परिमधिा एकव श्री धसनिरमे रिलावादैश्रोर लो वशिष्ट मे टता ह कि सिरय पुमष घोर प्रभात के खेल फे दख जगन्‌ का पचने गला कोई फएटिपन श्रधवा सद्‌ एरर सिद्ध नदी दाना। ^दवणाऽसिद्धे' | वही पना हम करदा शब्द की परिमाप्यमं देते दै । ब्रह्म परिमापा दो शब्दों से यनी हुई है । 'घ्रद्द' ( चढ़ना ) 'मनन' ( सोचना श्थवा जड़ और चेतन । चेतन कया करतों हैं । ड़ पाये पर हाथ मारता है । जैसे पुरुष सी पर दाथ डालते हु: नी ये गिरा देता दे छोग उसे श्रपने चशीभूत करके भाधीन चना लेता है । यहांपर जिसका जी चाहे सोचे बिचारे कि ग्रह जगत्‌ घ्रापमय है या नहीं हे ? यह जगत्‌ जीवाजीय हैं या नही ६ १ यद जगत्‌ नउ उेतनमय है या नहीं दै ? में मानता हूं कि अनियी के धर्म मे चदुतसी दाइसी फटियत बाते श्ारई हूं, पररर्तु विचारणोल मजुग्यी की दृष्टि में केपल व घाचीनतम शोर प्राति न धर्म ठहयना हे । जह्य परिष्व, क श्रयं कोई लाख श्रगडम वगद्धम शौर यन्डवन्द करे उत्ते स्पतं्ना हे। श्रौर बद्‌ साहस फरदे '्र्थ का श्रगर्थ कर रहे है, परन्तु परि- सापा स्पष्ट हैं । कोष देशों, चात देखो, शब्द थी जड ति देखो ०१




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