सो क्या जाने पीर पराई | So Kya Jaane Peer Parayee

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So Kya Jaane Peer Parayee by मीरा महादेवन - Mira Mahadevan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सो क्या जाने पोर पराई १७ ग्रपने-म्रापको संभाल न सकी । वह्‌ भागकर सोफ़ेपर जा वटी श्रौर मुँह दोनों हाथों में छिपाकर रोने लगी ! रोने की तो कोई प्रावर्यकता नहीं थी, फिर भी वह रो रही थी । ष बाबू उसके पास भ्रा बठे। “माधवी { माघती ने सिर हिलाकर पृछा, “क्या? “यहाँ देखो, माघवी :! माघवी लज्जा से गड़ी जा रही थी । *माधवी ! | माधवी ने हाथ नीचे कर ल्य श्रौर श्रि पोछ्कर जमीन ताकने लगी । “'माघवी, इधर देखो 1 एक नज़र उन्हें देखकर वह फिर झाँख पॉंछने लगी । घोष बावू अपने रूमाल से उसकी झाँख पोंछने लगे । माघवी ने कुछ कहा नहीं । घोष बाबू उसके सिर पर हाथ फेरने लगे । माधवी शिथिल होती जा रही थी, किन्तु घोष बाबू का स्पश्षं उसे जलती दिखा के समान बना रहा था । घोष बाबू मँजे हुए शिकारी थे । छः: महीने से वे यह श्राग सुलगा रहे थे, ताकि उसे शीतल करने का भ्रानन्द नही, ब्रह्मानन्द उन्हें मिल सके । भ्राज माधवी श्रपने तन की वह श्राग बुकाने आयी थी, जो बुझाने से बुकती नहीं, बल्कि श्रौर भी घघक उठती है। ` भ्‌ दो साल के भीतर-भीतर माधवी पूरी तरह बम्बइया बन चुकी । घर पर उसके पर न रुकते । केवल सोने-भर को वह घर जाती । बाकी समय घोष बाब तथा उनके मित्रों सो० पी०--२




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