योरोप में सात मास | Yorop Me Saat Mas

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Yorop Me Saat Mas by धर्मचंद सरावगी - Dharmachand Sarawagi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अमणको प्रवृत्ति -संखारसे द्ूच कर चखा जाता रै तव उसकी फीतिं शेष रद जातौः टै । मत्य भी उसका अस्तित्व नहीं मिटा सकती । संसारमें यही उसकी विजय है । “यह्‌ भी एक निश्चित सिद्धान्त है, मनुष्यका आदशं जितना यड़ा है उसकी कठिनाइयां भी उतनी ही बड़ी होंगी। यदि उसमें इतना साहस है किं वद अपने आदृशेके लिये उसका मूल्य कता सकता दै, तो वह वाधार्थोकी परवा न कर अग्रगामी वने | उसकी सफलताका मूलमंत्र यही है कि वह अपनेको इस योग्य बनाये जिससे उसको कभी विमुख हो षिचलित न होना पडे |” मजुष्यको पूर्ण अधिकार है कि वह अपने जीवनको जिस सांचेमें चाहे ढाठ सकता है । वे व्यक्ति जो अपना आदर्श बनाकर भागे बढ़ते हैं यदि वे अपने जीवनको उसके अन- रूप नहीं चना लेते तो वह स्थिति उनके छिये अनुकूल नहीं होती ! परन्तु उसी समय यदि ददता उसके अन्दर पैदा हो जाती है तो बह अविचकित भावसे अपनेको इसके योग्य वनां 'छेता है । मागकी कठिनाइयां उसके कप्टका कारण नहीं बनतीं सौर वह आनन्दके साथ अपते छक्षित आदरशेकी ओर बढ़ता जाता है [% जव फभी अपने मनमें उचार होती थी, तब में अपनी जस- % श्रीकाीनाधजी मालवीयके एक लेखका श्चवतरण !- लेखक ५




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