समय सार | Samay Saar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
422
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about गणेशप्रसाद जी वर्णी - Ganeshprasad Ji Varni
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना १५
पदुपाभूतके टीकाकार श्रुतसागरसूरिने पसनन्दी, वुन्दकुन्दाचार्य, वक्रप्रीवाचार्य, एलाचार्य भौर गृद्धपिच्छाचार्य
इन पाँच नामोका निर्देश किया है । नन्दिसधसे सम्बद्ध विजयनगरके शिलालेखमे भी, जो लगभग १३८६ ई०
का है, उक्त पाच नाम बताये गये हैँ । नन्दिसघकी पट्टावलीमें भी उपयुक्त पाँच नाम निविष्ट है परन्तु अन्य
शिलालेखोंसि पद्मनन्दी और कुन्दकुन्द अथवा कोण्डकुन्द हन दो नामोका ही उल्लेख मिलता हैं ।
छुन्दकुन्दका जन्मस्थान
इन्द्रनन्दी आचार्यने पद्मनन्दीको कुण्डकुन्दपुरका वतलाया है । इसीलिये श्रवणवेलगोलाके कितने ही
दिलालेखोमें उनका कोण्डकुन्द नाम लिखा है। श्री पी० वी० देसाईने “जैनिज्म इन साउथ इण्डिया में लिखा
है कि गुण्टकल रेलवे स्टेशनसे दक्षिणकी ओर लगभग ४ मीलपर एक कोनकुण्डल नामका स्थान है जो अनन्त-
पुर जिलेके गुटीताछुकेमें स्थित है । दिलालेखमें इसका प्राचीन नाम 'कोण्डकुन्दे' मिलता है। यहाँके निवासी
इसे आज भी 'कोण्डकुन्दि' कहते हैं । बहुत कुछ समव है कि कुन्दकुन्दाचार्यका जन्मस्थान यही हो ।
कुन्दकुन्दके गुरु
ससारसे नि.स्पू्ट वीतराग साधुओके माता-पितताके नाम सुरक्षित रखने--लेखबद्ध करनेकी परम्परा
प्राय' नहीं रही है । यही कारण है कि समस्त भआचार्योके माता-पिता विषयक इतिहासकी उपलब्धि नही है ।
हौ, इनके गुरुओके नाम किसी-न-किसी स्मे उपलन्ध होते है । पच्चास्तिकायकी तात्पर्यवृत्तिभे जयसेना-
चार्यते करन्दकरुन्दस्वामीके गुरका नाम ॒कूमारनन्दि सिद्धान्तदेव लिखा है भौर नन्दिसिघकी पट्टावलीमे उन्हें
जिनचन्द्रका शिष्य बतलाया गया है । परन्तु कुन्दकुन्दाचार्यने वोधपाहढके अन्तमे अपने गुख्के रूपमे भद्रवाहुका
स्मरण किया है घौर अपने आपको भद्रवाहुका शिष्य वतकाया है ! बोषपाहुढकी गाथाएँ इस प्रकार है--
सद्-विमारो हृमो भासासुत्तेसु ज जिणे किय ।
सो तह कदियं णाण सीसेण य मह्वाहुस्स ॥ ६१॥
बारसअगवियाण चउदसपुव्वगविउलवित्यरण ।
सुयणाणि भद्दवाहू गमयगुरु भयवओों जयओो ॥ ६२ ॥
प्रथम गाथामें कहा गया ह किं जिनेन्द्र भगवान् महावीरने अर्थरूपसे जो कथन किया है वह भाषा-
सूप्रोमे शन्द-विकारको प्राप्त हुमा अर्थात् अनेकं भरकारके शन्दो्मे प्रथित किया गया ह । भद्रवाहुके शिष्यने
उसको उसी रूपमें जाना हैं और कथन किया है । द्वितीय गायाम कहा गया है कि वारह् अगो गौर् चौदह
पूवेकि विपुल विस्तारके वेत्ता गमकगुर भगवान् श्रुतकेवली भद्रवाहु जयवत हो ।
मे दोनो गाथाएं परस्परमें सबद्ध हैं । पहली गायामें कुन्दकुन्दने अपनेको जिन भद्रवाहुका शिप्य कहा
है, दूसरी गाथामें उन्हीका जयघोप किया है । यहाँ भद्रबाहुसे अन्तिम श्रुतकेवली भद्रवाह ही ग्राह्म जान पढ़ते
हैं क्योकि ह्वादण भू और चतुदंश पूर्वका विपुरू विस्तार उन्हीसे समव था । इसका समर्थन समयप्राभृतके
पूर्वाक्त प्रतिज्ञावावय 'वदितु सब्दसिद्ध--' से भी होता है, जिसमें उन्होने कहा हैं कि मैं श्रुतकेवलीके द्वारा
प्रतिपादित समयप्नाभूृतकों कहूँगी । श्रमणवे्रगोलाके अनेक शिलालेखोमें यह उल्लेख मिलता है कि अपने
शिष्य चन्द्रगुफे साथ भद्रवाह बहा पधारे और वही एक गुफामें उनका स्वरगवाम् हुमा । इख वटनाको भाज
ऐतिहासिक तथ्यके रूपमें स्वीकृत किया जा चुका है ।
बोधपाहुडफे सस्कृत-टीकाकार श्रीशुतसागरसूरिने--
User Reviews
No Reviews | Add Yours...