समय सार | Samay Saar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना १५ पदुपाभूतके टीकाकार श्रुतसागरसूरिने पसनन्दी, वुन्दकुन्दाचार्य, वक्रप्रीवाचार्य, एलाचार्य भौर गृद्धपिच्छाचार्य इन पाँच नामोका निर्देश किया है । नन्दिसधसे सम्बद्ध विजयनगरके शिलालेखमे भी, जो लगभग १३८६ ई० का है, उक्त पाच नाम बताये गये हैँ । नन्दिसघकी पट्टावलीमें भी उपयुक्त पाँच नाम निविष्ट है परन्तु अन्य शिलालेखोंसि पद्मनन्दी और कुन्दकुन्द अथवा कोण्डकुन्द हन दो नामोका ही उल्लेख मिलता हैं । छुन्दकुन्दका जन्मस्थान इन्द्रनन्दी आचार्यने पद्मनन्दीको कुण्डकुन्दपुरका वतलाया है । इसीलिये श्रवणवेलगोलाके कितने ही दिलालेखोमें उनका कोण्डकुन्द नाम लिखा है। श्री पी० वी० देसाईने “जैनिज्म इन साउथ इण्डिया में लिखा है कि गुण्टकल रेलवे स्टेशनसे दक्षिणकी ओर लगभग ४ मीलपर एक कोनकुण्डल नामका स्थान है जो अनन्त- पुर जिलेके गुटीताछुकेमें स्थित है । दिलालेखमें इसका प्राचीन नाम 'कोण्डकुन्दे' मिलता है। यहाँके निवासी इसे आज भी 'कोण्डकुन्दि' कहते हैं । बहुत कुछ समव है कि कुन्दकुन्दाचार्यका जन्मस्थान यही हो । कुन्दकुन्दके गुरु ससारसे नि.स्पू्ट वीतराग साधुओके माता-पितताके नाम सुरक्षित रखने--लेखबद्ध करनेकी परम्परा प्राय' नहीं रही है । यही कारण है कि समस्त भआचार्योके माता-पिता विषयक इतिहासकी उपलब्धि नही है । हौ, इनके गुरुओके नाम किसी-न-किसी स्मे उपलन्ध होते है । पच्चास्तिकायकी तात्पर्यवृत्तिभे जयसेना- चार्यते करन्दकरुन्दस्वामीके गुरका नाम ॒कूमारनन्दि सिद्धान्तदेव लिखा है भौर नन्दिसिघकी पट्टावलीमे उन्हें जिनचन्द्रका शिष्य बतलाया गया है । परन्तु कुन्दकुन्दाचार्यने वोधपाहढके अन्तमे अपने गुख्के रूपमे भद्रवाहुका स्मरण किया है घौर अपने आपको भद्रवाहुका शिष्य वतकाया है ! बोषपाहुढकी गाथाएँ इस प्रकार है-- सद्‌-विमारो हृमो भासासुत्तेसु ज जिणे किय । सो तह कदियं णाण सीसेण य मह्वाहुस्स ॥ ६१॥ बारसअगवियाण चउदसपुव्वगविउलवित्यरण । सुयणाणि भद्दवाहू गमयगुरु भयवओों जयओो ॥ ६२ ॥ प्रथम गाथामें कहा गया ह किं जिनेन्द्र भगवान्‌ महावीरने अर्थरूपसे जो कथन किया है वह भाषा- सूप्रोमे शन्द-विकारको प्राप्त हुमा अर्थात्‌ अनेकं भरकारके शन्दो्मे प्रथित किया गया ह । भद्रवाहुके शिष्यने उसको उसी रूपमें जाना हैं और कथन किया है । द्वितीय गायाम कहा गया है कि वारह्‌ अगो गौर्‌ चौदह पूवेकि विपुल विस्तारके वेत्ता गमकगुर भगवान्‌ श्रुतकेवली भद्रवाहु जयवत हो । मे दोनो गाथाएं परस्परमें सबद्ध हैं । पहली गायामें कुन्दकुन्दने अपनेको जिन भद्रवाहुका शिप्य कहा है, दूसरी गाथामें उन्हीका जयघोप किया है । यहाँ भद्रबाहुसे अन्तिम श्रुतकेवली भद्रवाह ही ग्राह्म जान पढ़ते हैं क्योकि ह्वादण भू और चतुदंश पूर्वका विपुरू विस्तार उन्हीसे समव था । इसका समर्थन समयप्राभृतके पूर्वाक्त प्रतिज्ञावावय 'वदितु सब्दसिद्ध--' से भी होता है, जिसमें उन्होने कहा हैं कि मैं श्रुतकेवलीके द्वारा प्रतिपादित समयप्नाभूृतकों कहूँगी । श्रमणवे्रगोलाके अनेक शिलालेखोमें यह उल्लेख मिलता है कि अपने शिष्य चन्द्रगुफे साथ भद्रवाह बहा पधारे और वही एक गुफामें उनका स्वरगवाम्‌ हुमा । इख वटनाको भाज ऐतिहासिक तथ्यके रूपमें स्वीकृत किया जा चुका है । बोधपाहुडफे सस्कृत-टीकाकार श्रीशुतसागरसूरिने--




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