समता सौरभ (मासिक) | Samata Saurabh (Masik)
श्रेणी : पत्रिका / Magazine
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
66
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मार्ग की ओर चल पड़ता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि यदि अध्यात्म मे प्रगति
किया हुआ व्यक्ति मिल जाए, तो भी मूर्छित मनुष्य जागृत स्थिति मे छर्लोग लगा
सकता है (७७) इस तरह से बुदरापा, मृत्यु, धन-वैभव का नाश, ससार की
निस्तारता ओर जागृत मनुष्य (मुनि अनगार) के दर्शन-ये सभी मूर्च्छित मनुष्य को
आध्यात्मिक प्रेरणा देकर उसमे स्व अस्तित्व का बोध पैदा कर सकते है।
आन्तरिक रूपान्तरण
आल जागृति अथवा स्व अस्तित्व के बोध के पश्चात् आचाराग साधक
को (मनुष्य को) चारित्रात्तक आन्तरिक रूपान्तरण के महत्त्व को बतलाते हुए साधना
के ऐसे सारभूत सूतो को बतलाता है जिससे उसकी साधना पूर्णता को प्राप्त हो सके।
कहा है कि हे मनुष्य तू ही तेरा मित्र है (५६), तू अपने मन को रोककर जी
(६०)। जो सुन्दर चितवाला है, वह व्याकुलता मे नहीं फसता है (६६)। तू मानसिक
विषमता (राग-देष) के साथ ही युद्ध कर तेरे लिए बाहरी व्यक्तियो से युद्ध करने से
क्या लाभ (७४)? बध (अशाति) और मोक्ष (शान्ति) तेरे अपने मन मे ही है
(७२)। धर्म न गाँव मे होता है न जगल मे, वह तो एक प्रकार का आन्तरिक
खूपान्तरण है (८०)। कहा गया है कि जो ममतावाली वस्तु-बुद्धि को छोड़ता है, वह
ममतावाली वस्तु को छोड़ता है, जिसके लिए कोई ममतावाली वस्तु नही है, वह ही
ऐसा ज्ञानी है (मुनि है) जिसके द्वारा अध्यात्म-पथ जाना गया है (४०) ।
साधना के सूत्र
आन्तरिक रूपान्तरण के महत्त्व को समझाने के बाद आचाराग ने हमे
साधना की दिशाएँ बताई है। ये दिशाएँ ही साधना के सूत्र हैं अत इन पर दृष्टिपात
करना आवश्यक है। ये सूत्र हैं --
१ अज्ञानी मनुष्य का बाह्य जगत् से सम्पर्कं उसमे आशाओं और इच्छाओं को
जन्म दे देता है। मनुष्यो से वह अपनी आशाओं की पूर्तिं चाहने लगता है
और वस्तुओं की प्राप्ति के द्वारा वह इच्छाओं की तृप्ति चाहता है। इस तरह से
मनुष्य आशाओं और इच्छाओं का पिण्ड बना रहता है। ये ही उसके मानसिक
तनाव, अशान्ति जर दुख के कारण होते है (३५) । इसलिए आचाराग का
कथन है कि मनुष्य आशा और इच्छा को त्यागे (३५)
२ जो व्यक्ति इन्द्रियो के विषयो मे आसक्त होता है, वह बहिर्मुखी ही बना रहता
है, जिसके फलस्वरूप उसके कर्मबधन नहीं हटते है और उसके विभाव संयोग
(राग-देषातक भाव) नष्ट नही होते है (६८)! अत. इद्धिय-विषय मे अनासक्ति
साधना के लिये आवश्यक है। यहीं से सयम की यात्रा प्रारभ होती है (४६)।
आचाराग का कथन है कि हे मनुष्य । तू अनासक्तं हये जा जौर अपने को
दिसम्बर १६६४ १७
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