स्वदेश | Swadesh

Swadesh by बाबू महवीरप्रसाद - Babu Mahavirprasadरवीन्द्रनाथ ठाकुर - Ravendranath Thakur

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महावीर प्रसाद गहमरी - mahavir prasad gahmari

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रवीन्द्रनाथ टैगोर - Ravindranath Tagore

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नया और पुराना । ५ चाहता है उसकी को प्रतीति करानेवाटी भाषा नहीं है, प्रत्यक्ष करने- वाला कोई प्रमाण नहीं है और समझमें आने योग्य कोई परिणाम या नतीजा नहीं है । यह देखकर वे कहने लगे कि हे वृद्ध, हे चिन्तातुर, हे उदासीन, तुम उठो, पोढिटिकल ऐजिटेशन अर्थात्‌ राजनैतिक आन्दोलन करो; अथवा दिनकी नींदमें पड़े पड़े अपने पुराने, जवानीके, प्रतापकी घोषणा करते इए शिथि-पुरानी हडियोके बरु पर बलफो-खम ठोको । देखो, उससे तुम्हारी खजा निवृत्त होती है कि नहीं । किन्तु मुञ्चे बाहरी छोगोके इस उपदेश पर श्रद्धा या प्रवृत्ति नहीं होती । केवल अखबारोंकी पाल चढ़ाकर दुस्तर संसारसागरमे यात्रा आरम्भ करनेका मुझे साहस नहीं होता । यह सच है कि जब घीमी और अनुकूल हवा चढती है तब यह खबरके कागजोंकी पाल गवेसे फ़रूछ उठती है, किन्तु जब कभी समुद्रमें तूफान आवेगा तब यह दुबेठ दम्भ सैकड़ों जगहसे फटकर बेकाम हो जायगा । यदि पास ही. कहीं उन्नति. नामक. पक्का बन्द्रगाह होता ओर वर्हौ पर किसी तरह पहुँचते ही “दहदी-पेडा दीयतां और भुज्यतां की बात होती तो चाहे अवसर सोचकर, आकाशका रंगढँंग देखकर, अत्यन्त चतुरता ओर सवघानीके साथ एकबार पार होनेकी चेष्टा की भी जाती । किन्तु जब यह जानते हैं कि इस उन्नतिके मागंमें यात्राका अन्त नहीं हैं; कहीं पर नाव बाँध नींद लेनेका स्थान नहीं है; ऊपर केवल ध्रुवतारा चमक रहा है और सामने केवल अन्तद्दीन समुद्रकी जलराशि है; हवा प्रायः प्रतिकूल ही चला करती है और लहरें सद्यु भारी वेगसे उठा करती हैं, तब बदे बैठे केवल प्रटसकेप कागजकी नाव तैयार करनेको जी नदीं चाहता | हक




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