आलोचक रामचन्द्र शुक्ल | Aalochak Ramchandra Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्म-संस्मरण प बस्ती थी। ऐसे लोगों के उदू' कानों में हम लोगों की बोली कुछ श्रनोखो लगती थो । इसी से उन लोगों ने हम लोगों का नाम “निसंदेह लोग' रख छोड़ा थ।। मेरे मुहल्ले में एक मु्लमान सबजज श्रा गए थे । एक दिन मेरे पिताजी खड़े-खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे । बीच में में उधर जा निकला । पिताजी ने मेरा परिचय देते हुए कहा--'इन्हें हिन्दी का बढ़ा शौक हैं ।”” चट जवाब मिला-- ““ापको बताने की जुरूरत नहों । में तो इनकी सूरत देखते हो इस बात से वाकिफ हो गया।” मेरी सूरत में ऐसी क्या बात थौ यद इस समय नहीं कहा जा सकता । आज से चालीस वर्ष पहले की वात है ।




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