रघुवंशम | Radhuvansam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ३ ) वटी हौ । साजा दिलीप तथा उनकी धर्मपत्नी मगधराजकुमारी सुदक्षिणा ने श्रद्धापुवक चरण स्पर्श कर उन्हं वन्दना की भौर गुर तथा गुरुपत्नी ने बड़ प्रेम से आश्रीवदि देकर उनका सत्कार क्रिया । वाद महपि तै उस राजपि से पूछा कि आपके राज्य में सब कुशल तो है न ? तव उत्तर में उन्होने कहा--अपकी कृपा से राज्य मेँ राजा, मन्त्री, मित्र, राजकोप, राज्य, दुर्ग और सेना ये सातों अंग भरपुर हैं । अग्नि जल, महामारी और अकार मृत्यु इन दैवी आपत्तियों तथा चोर, डाकुं, शत्रु आदि मानुषी आपत्तियों को दूर करने वाले तो आप बैठे ही हैं । भापके मन्त्रों के प्रभाव से मेरे राज्य में कोई कष्ट नहीं है । मापके ब्रह्मतेज के वल से मेरी प्रजा में कोई भी न तो अल्पायु है, न किसी को किसी प्रकार ईतियों या विपत्तियों का डर रहता है। जव आप स्वयं ब्रह्मा के पुत्र ही हमारे कुलगुरु होकर हमारे कल्याण की वातें सोचते हैं तो हमारा राज्य तिर्विघ्त क्यों न रहे । पर महाराज ! आपकी इस पुत्र वधू सुदक्षिणा को सन्ततिहीन देखकर सप्त- द्वीपा यहं पृथ्वी मुझे अच्छी नहीं लगती । भव तो मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मेरे पीछे कोई मुझे पिण्ड देने वाला भी नहीं रह जायेगा । इसी दुःख से मेरे पितर मेरे दिये हुए श्राद्ध के अन्न को न खाकर रोने लगते हैं और सोचने लगते हैं कि मेरे पीछे इनको कौन तपंण आदि करेगा । इसलिए प्रभो ! अब कोई ऐसा उपाय वत्ताइए जिससे मुझे पुत्ररत्न हो गौर मैं पितृऋण से मुक्त हो जाऊं क्योंकि इक््वाकुवंशी राजाओं की सभी कठिनाइयाँ आपकी कृपा से सदा दुर हो जाती रही हैं । राजा की वात सुनकर वसिष्ठजी ने जाँखें वन्द कर क्षणभरके लिए योगवल से ध्यान लगाकर सन्तति-नियेध का रहस्य जानकर राजासे कहटा--राजन्‌ ! एक वार जव तुम देवासुर-संग्राम में इन्द्र की सहायता कर पृथ्वी को लौट रहे थे तव मां में कल्पदुक्ष की छाया में कामघेनु वटी हुई थी । उस समय तुम्हारी धर्मपत्नी इस सुदक्षिणा ने रजस्वला होने पर स्नान किया था । उसके पास पहुंचने की त्वराके कारण तुमने कामघेनुकी मोर ध्यान नहीं दिया । उस समय तुमने उसकी प्रदक्षिणा न कर गलती कर दी । अतः उसने क्रुद्ध होकर शप दे दिया कि जव तक तुम मेरी सन्तति की सेवा न करोगे तव तक तुम्हें पुत्र नहीं होगा । उस समय वड़े-वड़े मतवाले दिग्गज आकाशगंगा में खेलते हुए चिग्वाइ कर रहे थे, इसलिए उस शाप को न तो तुम ही सुन सके, न तुम्हारा सारयि ही ।




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